(गतांक से आगे)
हम टैक्सी के लिये बाहर ही आये थे कि दरवाजे पर हमको एक बन्दे ने रोक दिया, और कहीं तो भी इशारा किया. तुरंत ही एक अदद टैक्सी हमारे सामने आ के खडी हो गई. ड्राईवर याने कि अपने टैक्सी वाले 'भैय्या', उतरे, और बिना कुछ कहे हमारा सामान उठाया और टैक्सी की डिक्की में जमा कर लिया, और हमारे लिये पीछे का दरवाजा खोल कर खडे हो गए. मगर हम तो ठहरे जन्मजात के 'कहे उत्तर, चले दक्षिण', सो फ़ट से मन में सोचा आगे ही बैठते हैं, नजारा तो आगे ही से ठीक दिखेगा. सो लपक के ड्राईवर के बगल वाली सीट पर जम गये. अब अपने 'भैय्या' भी बैठ गये, और पुछा कि कहाँ जाओगे मियां? अब क्या बोलते, चुपचाप से अपनी कम्पनी के गेस्ट हाउस का पता उनके हाथ पर धर दिया. उसे पढा, और फ़िर बस! चल दिये. अपन तो ऎसे मिजाज से बैठ गये थे जैसे कि अपने को सारे शहर की गल्ली कुचे का अता पता मालुम है -मगर मन ही मन डर रहे थे ...नहीं नहीं डर नही घबरा रहे थे, अपन डरते काँ है?
तो साहब चल दी टैक्सी, ऊप्स! सॊरी, 'कैब'! यहाँ पर टैक्सी को यही कहते हैं.
पहले तो ड्राईवर भैय्या को गौर से देखा, उपर से नीचे तक. फ़िर उनकी कैब को. आगे से पीछे तक. फ़ुल एअरकंडीशंड. डैशबोर्ड पर तमाम तरह के उपकरण. दो तरह के मीटर, एक छोटा सा प्रिंटर सा, और तो और एक कार्ड रीडर भी. वाह 'कमाल' बाबू बढिया है! अरे यही तो नाम है भाई अपने ड्राईवर भैय्या का. कमाल बिन बासरी. अरे नही भाई, पुरे सिंगापुरी ही थे, दिखते भी चायनिज टाईप के ही थे. हमने पुछा था ना. (वहीं के) लोकल ही थे. तो गप्पे लडाते हुये चले जा रहे थे. करीब ४०-४५ मि० तो काटना थे ना, और चुप तो हमसे कहीं ना रहा जाय!
उन्होने हम से पुछा कि क्या हम 'बोम्बे'(मुम्बई) से हैं? किसी हीरो हीरोईन को जानते हैं क्या? अब क्या कहें उनसे?
फ़िर तो साहब वो शुरु हो गये. उनकी धरमपत्नी, जो कि 'शाहरुख खान' की बहुत बडी फ़ैन थी, के बारे में बताने लगे. बता क्या रहे थे शिकायत कर रहे थे कि आखिर उसकी फ़िल्म में ऎसा होता क्या है? जो उसकी पत्नी फ़िल्म देखकर रो देती है? ये तो खैर मुझे भी नहीं पता. मैने पुछा भईये क्या हिन्दी समझते हो? जवाब आया, नही पर फ़िल्मों में 'चायनिज सबटाईटल' आते हैं. भई वाह!
उसने तो विनोद खन्ना, ह्रिषीकपूर, ऎश्वर्या राय, हेमामालिनी, धर्मेंद्र न जाने किस किस के नाम ले डाले. बोलने लगा कि ये लोग तो यहाँ आते रहते हैं और वो सबको जानता है. लो कल्लो बात, हम भारत में रहकर, कभी पास से देख ना पाये, और ये...!
चलो, बातें बहुत हुई, अब रास्ते पर थोडा ध्यान दिया जाय. 'गड्डी जांदीए छलांदा मारदी...' ऎसा तो कुछ ना हुआ. क्योंकि सिंगापुर में गड्डी छलांदा मारदी नईं जांदी, स्मूदली जांदीए. सडकें बहुत अच्छी होती हैं ना. जूउउम-वर्रूर्रूर्रूम करती हुई चमकती दमकती गाडियाँ भागी चली जा रही थी, मगर अपनी अपनी लेन में. ये नहीं कि जहाँ सिंग समाये चल दो. हाँ बीच बीच में इक्क दुक्का दोपहिया वाहन जरुर कुलांचे मार रहे थे. एसा लग रहा था कि ऊँट के उपर लोग बैठे हैं. अब यार है तो छोटे छोटे कद के लोग और बाईक्स चलाएंगे बड्डी बड्डी तो ऎसा ही लगेगा ना? ऊँची ऊँची इमारतें, बडे बडे फ़्लायओवर, किनारों पर तरतीब से लगे हुए पेड, साफ़ सुथरी सडकें, और जगह जगह आगे के ट्राफ़िक की सुचना देते हुए विद्युतपटल. ह्म्म्म! सही है!
हाँ, पुरे रास्ते भर हम सडक पर कुछ 'मिस' करते रहे. अरे अपने आर०टी०ओ० को. नहीं समझे? अरे यार, एक भी गाय, भैंस, बकरी, कुत्ता कुछ ना दिखा. और तो और एक भी ठोला (अपना टिरेफ़िक ट्राफ़िक पुलिसिया) तक ना दिखा.
खैर, थोडी देर में हमारी कैब एक इमारत के प्रांगण में खडी थी. हमारा सामान उतारा जा चुका था, और एक प्रिंटेड रसीद हमारे हाथ में थी. याने की 'बारगेनिंग' का कौनो चांस नहीं. हमने सोचा हमारा इन्दौर या बंगलौर होता तो पहले तो हील हुज्जत करनी पडती, भाडे की मगजमारी करते, दस बातें सुनता और सुनाता, और ज्यादा भाडा मांगता. यहाँ से लाया, वहाँ से लाया, वापस खाली जाऊँगा, सामान का एक्स्ट्रा - एट्सेक्ट्रा एट्सेक्ट्रा! पर यहाँ तो कोई रोल ही नही. भाडा बना $१९.५०. हमने $२० दिये, उसने भी चुपचाप ५० सेंट्स वापस कर दिये. हिसाब तो हिसाब है. चलो भई, अंतत: पहुँच ही गये अपने मुक्काम. 'कमाल' भाई को शुक्रिया कहा और चल पडे लिफ़्ट की तरफ़.
अरे! अब क्या है?
अभी अभी तो गेस्ट हाउस में घुसे हैं. अब नहाना धोना किया वो भी बताएं क्या?
हाँ, अब अगर कमेंट उमेंट मारना है तो लिखिये, और बाद में तशरीफ़ लाईयेगा.
हमें बहुत काम पडे हैं अभी.
फ़िर मिलते हैं, सिंगापुर की और खबरों के साथ.
जै राम जी की.
Saturday, March 18, 2006
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1 comment:
आए हो नहा धोकर फ़्रेश फ़्रूश हो लो, फिर बतियाते है,कमेन्ट का क्या है, जब चाहो तब कर लें। खाना तो तुम खाकर ही आये होगे? तिबारा खाओगे क्या?
खैर हमारा क्या? पेट तुम्हारा, माल तुम्हारी कम्पनी का, अपने राम का क्या जाता है।
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