Wednesday, April 05, 2006

ये काम नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए...

हमें तो पता ही था, आप लोग यही सोचोगे, मगर नहीं यार, हम फ़िर से नौकरी नहीं बदल रहे, कुछ और बताना चाह रहे हैं.

तो जनाब अब जब सिंगापुर आ ही चुके हैं तो यहाँ के रंग में थोडा सा ढल जाया जाय कि नहीं?

बडे बुढे तो कह भी चुके हैं कि "जैसा देश वैसा भेष".

तो हम बात कर रहे हैं यहाँ के खाने की. वैसे हालिया तो सिंगापुर में हमारा पदार्पण हुआ है, और इसलिये अभी से कोई राय बनाना तो ठीक नहीं, मगर जो हमने अभी तक देखा और जाना वो ये है कि अगर हमें यहाँ का खाना खाना नहीं आया तो फ़िर तो हमारा कुछ भला नहीं होने का. कम से कम जब तक हम ' छडे'* हैं तब तक तो (वैसे बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी).

और हाँ, हम कोई पूरे सिंगापुर का हाल नहीं बता रहे, सिर्फ़ हमारे साथ जो हुआ उसका,और हमारे आस-पास का हाल बता रहे हैं.

हम जिस इलाके में रहते हैं, वहाँ १-२ कि०मी० के व्यास में कई 'फ़ुड कोर्ट' बने हुये हैं. अब 'फ़ुड कोर्ट' क्या होता है पहले तो ये समझाया जाय. एक ऐसी जगह जहाँ करीब ८-१० दुकाने होती हैं. और वो दुकानें सिर्फ़ खाने-पीने वाली ही होती हैं. इन दुकानों में खाना डिस्पले में रखा होता है. आप बता दो आपको क्या क्या चाहिये, और दुकानदार आपको वो लाकर दे देगा. इन सब दुकानों के ग्राहकों के लिये एक ही कॉमन जगह होती है बैठने के लिये. वहीं पर एक दो दुकानें शीतलपेय इत्यादि की भी होती है, जहाँ कॉफ़ी, शीतलपेय के अलावा बीयर (जीतू भैय्या ध्यान दें) भी मिलती है.

अब सिंगापुर में तो भांति भांति के लोग होते हैं, तो खान-पान भी अलग अलग होता है. तो इन फ़ुड कोर्ट्स में कुछ दुकानें चायनीज, मलेशियन, अमेरिकन खाने की और एक अदद भारतीय खाने की. अब भई 'भारतीय खाना', दरअसल, लिखा तो होता है कि 'Indian Muslim Food' मगर अधिकतर जगह ये दुकानें श्रीलंकन / तमिल लोगों द्वारा संचालित होती हैं. अब एक पुरे 'फ़ुड कोर्ट' में, सिर्फ़ एक इसी जगह आपको कुछ मसाले वाली चीज मिलेगी, मगर स्वाद अपना भारतीय हो यह कतई जरूरी नहीं. भारतीय खाने के नाम पर आपको मिलेगी आलू की सब्जी, और कुछ ऐसी सब्जीयाँ जो आपने शायद ही कहीं खाई हो. हाँ भिंडी से जाने कुछ विशेष प्रेम होता है इन्हें, वह जरूर मिलेगी. और मजे की बात- वह भी रसेदार (ग्रेवी वाली). चावल भी मिलेंगे, पराठे (नार्थ वाले नहीं साउथ वाले - मैदे के), पुरी और डोसा (जहाँ तमिल शब्द आ गया वहाँ डोसा ना हो, ऐसा तो नहीं हो सकता). और हाँ सामिष भोजन भी वहीं मिलेगा. अपने पुर्णत: शाकाहारी दोस्तों के लिये थोडी 'अपच' बात है.

हम तो खैर 'भूख लगी तो कुछ भी खा लें' वाली श्रेणी में आते हैं. अब हमारे घर मत चले जाईयेगा ये पुछने या बताने, वरना आपको एकदम विपरीत  प्रतिक्रिया मिलेगी. उनके हिसाब से तो हमसे बडा नखरेबाज कोई नहीं. हम तो सामिष और निरामिष खाने का बता रहे हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है कि हम सिर्फ़ वही वस्तु खायेंगे जो पहले खा चुके हैं, हम तो प्रयोग करने के लिये एकदम तत्पर रहते हैं.

हो उस दिन हुआ यह कि, हर दिन वही एक जैसा खाना खा कर हम बुरी तरह अघिया चुके थे. तो सोचा कि चलो आज कुछ नया ट्राय किया जाय. इधर उधर नजर दौडाई तो चायनीज पर जाकर अटके. सोचा कि अपने भारत में जो चायनीज खाना मिलता है वैसा ही कुछ रहेगा, और उम्मीद तो उससे भी बेहतर ही की थी. मगर ये क्या? एक भी डिश अपनी जानी पहचानी नहीं दिख रही थी. उपर से तुर्रा ये कि, हम उन लोगों को समझा भी नही पा रहे थे कि हमें क्या चाहिये. न हमारी अंग्रेजी उनके पल्ले पड रही थी ना उनकी हमारे. जैसे तैसे उनके डिस्पले पटल से एक डिश उनको बताई कि भैय्या 'वो' दे दो, और हम आके बैठ गये अपनी जगह. अपनी समझ से तो हम उन्हें बता के आये थे कि - नूडल्स और फ़िश चाहिये - और उसी के इंतजार में मुँह में पानी लिये बैठे थे. तो जनाब, थोडी देर के इंतजार के बाद आ ही गया हमारा 'खाना'. तो 'खाने' में क्या आया - एक बडा सा कटोरा, उसमें भरा था पानी जैसा कुछ सुप, उसमें तैर रहे थे  कुछ नूडल्स, और एक दूसरी तरह के चपटे वाले नूडल्स, और ४-५ रसगुल्ले जैसी चीज. दिख तो बिलकुल रसगुल्ले जैसी थी मगर बाद में पता चला कि वो 'फ़िश बॉल्स' थी. और तो और खाने के लिये दे दी हमें 'चॉपस्टिक' और एक सुप पीने वाला चमचा. क्या कहा? 'चॉपस्टिक' क्या होती है? अरे भैया, बिल्कुल सीधी सीधी दो डंडियाँ होती है, कोई २०-२५ से०मी० की. और उसी से खाना होता है. वो भी एक ही हाथ से.

अब हमारी हालत तो ऐसी थी कि - कभी हम खुद को, कभी हमारे खाने को देखते थे. खुद से कहा -"बेटा विजय, बहुत 'एक्सपेरिमेंट' करता है ना, ले अब भुगत."

भुख तो जोरदार लगी थी सो चढ गये सूली पर याने जुट गये उस खाने को खतम करने के अभियान पर.

पहले तो चोर नजरों से इधर उधर खाते हुए लोगों को घुरा कि देखें तो वो कैसे खा रहे हैं. दिमाग घुम गया, उनके तो हाथों में वो चॉपस्टिक्स ऐसे चिपकी थी मानो उसी के साथ पैदा हुये हों, और बडे आराम से खा रहे थे. और अपने तो हाथों और वो चॉपस्टिक ने बगावत मचा रखी थी. एक को सम्हालो तो दूसरी भागने की तैय्यारी में.जैसे तैसे तो अपने हाथों में उन्हे 'फ़िट' किया. मगर अब नई मुसीबत, खायें कैसे? नूडल्स तो पहले ही ठान चुके थे कि अपनी चॉपस्टिक पर आना ही नहीं है. और वो फ़िश बॉल्स? अब एक तो फ़िश बॉल्स और वो भी सुप में, यानि 'करेला और नीम चढा'. बिल्कुल 'फ़िश' के माफ़िक ही 'बिहेव' कर रही थी, कभी इधर फ़िसले, कभी उधर. उधर चॉपस्टिक पकडे पकडे हाथ अलग तेढे होकर दुखने लगे थे. सामने बैठा छोटा सा बच्चा तो चावल तक उसी चॉपस्टिक से दबा-दब खाये जा रहा था. और हम?

'..खडे खडे, गुबार देखते रहे' वाली स्थिति में ही थे.

एक जुगत लगाई. सोचा कि पहले चम्मच से सुप खतम कर लिया जाय, और तब बाकी चीजों को निपटाया जाय. तो भैया, पहली सीढी चढे. सुप खतम. अब? अभी भी राह कोई आसान नहीं थी. जैसे तैसे नूडल्स को चॉपस्टिक्स पर टिका कर अब जैसे ही मुँह तक लायें, नूडल्स फ़िसल कर फ़िर से कटोरे में. कोई और राह नही सुझी इसके सिवा कि बाकी माल को चॉपस्टिक्स की सहायता से चमचे पर टिका टिका कर उदरस्थ किया जाय. अंतत: करीब ४५ मि० में जैसे तैसे 'मिशन खाना' खत्म हुआ. पेट भरा या नहीं ये मत पुछियेगा.

फ़िर तो फ़ैसला कर लिया. अरे नहीं जनाब, हम पीठ दिखाने वालों में से नहीं हैं, प्रण कर लिया है कि चॉपस्टिक से खाना सीख कर ही रहेंगे. गुगल देवता से पुछा तो उन्होने बहुत सारी जगह बताई जहाँ से हम सीख सकते हैं. आप भी सीखिये. यहाँ से.

चलिये अब चलते हैं, चॉपस्टिक से खाने की प्रेक्टिस भी तो करना है.
 
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*छडे: बिन ब्याहे, कुँवारे!