Sunday, March 12, 2006

यह काम नहीं आसां ३

पिछली बार तो हमने कह दिया कि - हम उड चले, मगर फ़िर सोचा कि उसके पहले हमने क्या क्या पापड बेले, अगर आपको वह सब ना बताया तो क्या मजा?

अब जरा पहले तो आप सारे "एक्टर्स" की "लोकेशन" समझ लीजिए। हम तो बैठे थे बंगलौर में। हमारे नियोक्ता (एम्पलायर यार!) थे सिंगापुर में, और उन्हीं की एक शाखा है पुना में। तो साहब ये तिकडी थी अपनी पिक्चर में।तो हमारा साक्षात्कार वगैरह तो जो है हुआ सिंगापुर से, मगर जब हमें सिंगापुर "एक्स्पोर्ट" करने की बारी आई तो सारी जवाबदारी डाल दी पुना वालों पर, और हम भी क्या कम थे, हम भी पुरे के पुरे ढुल गये उन (पुना वालों) पर।

वीजा वगैरह के लिये दुनिया भर के फ़ार्म्स भरे, तरह तरह के फ़ोटू खिंचवाए, दो-एक और फ़ार्म्स थे वो भी भरे। सारे कागजात -मय पासपोर्ट पूना भिजवाए गए। अंतत: वह काम हो ही गया जिसके लिए किसी को भी एक अदद पासपोर्ट की गरज होती है - अमां मियां - वीजा मिल गया यार!! सिंगापुर सरकार का ठप्पा लग गया हमारे "कोरे/क्वाँरे" से पासपोर्ट पर।पहली बार था तो दस बार देखा, इधर से देखा, उधर से देखा, सब तरफ़ से देखा कि देखें तो आखिर क्या आयतें लिखी होती हैं इस पर!

पहले तो ज्वाईनिंग डेट्स की प्राब्लम्स थी, वो ही तय नहीं हो पा रही थी। तो हमें टिकिट कब का देते वो भले लोग।खैर, जैसे तैसे ६ मार्च का ही टिकिट मिला, ये तो अच्छा हुआ कि रात की फ़्लाईट थी, क्योंकि ६ ता० को भी हमें हमारे आफ़िस जाना था।तो जी तय यह रहा कि ६ मार्च को अपने वर्तमान आफ़िस में दिन निकालेंगे, और रात को उडनखटोले में बैठ कर सिंगापुर और ७ मार्च को नए आफ़िस में धमाकेदार एन्ट्री। एक भी दिन की तनख्वाह क्यों छोडें भाई?

जैसा कि आपको पता ही होगा, हर कम्पनी में कई सारे महकमे होते हैं, जो अधिकतर तो तालमेल से काम करते हैं पर कभी कभी गडबड भी कर बैठते हैं।हुआ यह कि हम तो जाने कब से चिल्ला रहे थे कि हम बंगलौर ही से उडेंगे और हमें बंगलौर ही से टिकिट दिया जाय, और फ़िर हमें मिला भी एसा ही।
मगर जैसा कि होता है (बाहर जाने वालो को पता होगा), एक विभाग होता है अर्थकोष का। किसी बाहर जाने वाले बन्दे को उस देश की कुछ मुद्रा खर्चेपानी के लिये दी जाती है। तो, पहले यह बात हुई थी कि वो forex हमें बंगलौर हवाईअड्डे पर ही पहुँचा दी जायगी। हम भी इसी उम्मीद से बैठे थे।अब जाने वाले दिन (६ ता० को) पुना से फ़ोन आया और हमसे पुछा गया कि हम "मुंबई" हवाईअड्डे पर कब पहुचेंगे ताकि हमें हमारी अमानत दी जा सके। लो कल्लो बात। थोडा और वार्तालाप हुआ तो पता चला कि उस विभाग को खबर ही नहीं थी कि हम जा कहाँ से रहे हैं। वो यही समझे बैठे थे कि हम मुम्बई से ही उडेंगे।चलो, कोई बात नही, थोडी भागा दौडी के बाद हमने वह बंगलौर के ही उनके एजेंट से प्राप्त कर ली।

उफ़्फ़!! सारी कवायदें अपना रंग ला रही थी और हमारे जाने का समय करीब आता जा रहा था।

हमे अपने शहर इन्दौर जाने का तो मौका नही मिल पा रहा था, इसलिये हमारे माता-पिता ही बंगलौर चले आये- अरे हमें see-off करने भाई! आखिर बच्चा पहली बार देश के बाहर जा रहा है। हाँ, आने से पहले हम अपने भाई और अपनी "मैडम" से नहीं मिल पाये इसका जरुर थोडा दुख हुआ। अब मैडम कौन है ये ना पुछने लगिएगा अभी। वो बाद में।

खैर कुछ घंटे एअरपोर्ट पर बिताए, चेक-इन, इम्मीग्रेशन, फ़िर इन्तजार ११:१५ का। क्यों? अरे तभी हवाईजहाज में बैठने देते ना, कोई बारांबाकी की बस थोडे ना थी जो जब जी में आया बैठ गये।

अब एक और मजेदार बात हुई, या यूँ कहें कि गडबड हुई। हमारे पास एक तो था भारी सा हेण्ड्बैग, एक सुट्केस, और एक स्ट्राली (वो पहिये वाली सुट्केस टाईप की होती है ना? वो वाली)।अब पहली बार (देश से) बाहर जा रहे थे, थोडी धुकधुकी, थोडी घबराहट सी, इस चक्कर में, हमने हेण्ड्बैग और स्ट्राली दोनो ही लगेज में बुक कर दिये और (बाद में अपने आप को कोसते हुए) सुट्केस ढोते हुये फ़िरते रहे।बाकी लोगों के देख कर जलते रहे कि बाकी सब तो ठेल ठेल कर जा रहे थे, और एक हमीं थे जो ढो कर चल रहे थे। चलो कोई गल्ल नहीं! अपन तो ठोकर खाके ही ठाकुर बनते हैं यार!! और इसके अलावा कर भी क्या सकते थे?

एक वाकया और! देख कर अच्छा तो नहीं लगा फ़िर भी...!
जहाँ हम अपने उडनखटोले का इन्तजार कर रहे थे, वहाँ और भी काफ़ी लोग थे, देशी-विदेशी। अब एक विदेशी बन्दा अपना "गोदशीर्ष संगणक" (laptop computer) ले के कुछ काम कर रहा था। उनके पडोस में एक देशी सज्ज्न थे।थोडी देर बार वो सज्ज्न लगे उस विदेशी से बतियाने। बतियाना तो क्या था, वो विदेशी बन्दा जो कर रहा था उसके बारे में कुछ पुछ रहे थे। और जो पुछ रहे थे वो ऎसे पुछ रहे थे मानो कि सामने वाला कॊई तोप हो और कोई महान काम कर रहा हो। और खासकर यह तब और बुरा लगा जब कि वो खुद को किसी IT कम्पनी के मैनेजर जैसा कुछ बता रहे थे। छोड परे! हमें क्या!?
(वैसे हमने भी झांका था, powerpoint जैसे किसी software पर slides बना रहा था)

अंतत: उदघोषणा हुई और बाकियों के साथ हम भी बढ चले अपने सिंगापुर एअरलाईंस के उडनखटोले की तरफ़!

क्रमश:
(सिंगापुर एअरलाईंस की बालाओं के बारे में जानना हो तो इन्तजार कीजिए अगले अंक का)

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

आपका इ "प्रथम विदेश-यात्रा-वृतान्त" बडा सरस लगा ; जैसे कोई सजीव वर्णन कर रहा हो | ( देश के हित के लिये ) विदेश प्रवास पर बधाई और शुभकामनाएँ | अपनी "मेडम" के बारे मे बताना मत भूलियेगा |