Thursday, June 18, 2009

The Last Lecture

अभी पिछले महीने ही मेरी कंपनी में एक स्पर्धा आयोजित की गई थी, जिसमें कंपनी की एक कार्यप्रणाली को थीम बनाया गया था और उस कार्यप्रणाली को लेकर किसी भी प्रकार की प्रविष्टियाँ मांगी गई थी। तस्वीर, पोस्टर्स, संदेश, लघु फ़िल्म, विज्ञापन फ़िल्म इत्यादी।

मैने भी ५ प्रविष्टियाँ भेजी थी।

तीन तो तस्वीरें थीं, जो कि मैने अपने मोबाईल से खींची हुई थी।
और दो पोस्टर्स थे जो कि मैने ही बनाये थे।

बिल्कुल सीधे साधे पोस्टर्स और तस्वीरें थीं, जिनपर बाद में संदेश चस्पा कर दिये गये थे, फ़ोटोशॉप की सहायता से। जिसे करने में मेरी ही टीम के एक फ़ोटोशॉप एक्सपर्ट साथी, राहुल, ने मदद की थी।

बहरहाल, जब परिणाम घोषित हुआ तो बड़ी खुशी हुई, मेरी प्रविष्टियों को प्रथम स्थान मिला था।
कंपनी के सारे (हज़ारों) लोगों को इमेल पहुँचा, मेरे नाम और तस्वीर के साथ।

आज उसका पुरस्कार मिला। एक अंग्रेजी पुस्तक। The Last Lecture (Randy Pausch).

पुस्तक पर हमारी कंपनी के एस्जीक्यूटिव डायरेक्टर का संदेश भी था, उन्हीं के हाथ से लिखा हुआ।

मेरे लिये तो खुशी की बात थी, इसलिए सोचा सबसे बाँट लुँ। और हाँ, अगर पार्टी-वार्टी मांगने का इरादा रखते हो तो पहले यह पोस्ट पढ लीजियेगा। :)

तो हम तो चले Last Lecture पढने, आखिर ऐसे Lecture, अरे मेरा मतलब है पुरस्कार, बार बार थोड़े ना मिलते हैं।

Thursday, November 22, 2007

वो २१५ किलोमीटर

उसने गाड़ी में सामान रखने के बाद पुछा "कहाँ बैठना पसंद करेंगे?" जाहिर है हमारा जवाब "आगे" ही रहा होगा. बस चलता तो हम तो ड्राईविंग सीट ही कह देते. तो हम धँस लिये आगे की सीट पर. गाड़ी "ऑपेल" की कोई मॉडल थी. खासी बड़ी सी कार थी. मेरा बड़ा वाला बैग (३२ इंच वाला) पीछे की डिक्की में आराम से पसर के लेट चुका था. और हम अपनी सीट पर हाथ पाँव फ़ैला के देख चुके थे. बैठते ही आदत के मुताबिक पहला काम सीट बेल्ट लगाना था – वो किया.

 

गाड़ी में बैठे तो जान में जान आई. और फ़िर गाड़ी निकल पड़ी हीथ्रो से. जी हाँ, मैं पहुँचा था लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर.   मेरी हवाई यात्रा शुरु हुई थी मुम्बई के छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से, जहाँ का तापमान खासा ३० डिग्री था. पुरे १० घंटे की थका देने वाली बोर सी हवाई यात्रा कर के मैं हीथ्रो पहुँचा था, जहाँ का तापमान था ३ डिग्री. कुछ ही घंटों में तीस से तीन तक का सफ़र; बोर इसलिये क्योंकि अकेले यात्रा करना अधिकतर मामलों में बोर ही लगता है. और खासतौर पर जब आपको एक ही सीट पर बैठे रहना पड़ता है. इस हवाई यात्रा की बातें बताउँगा अगली बार कभी.

 

खैर हम चल पड़े कार्डिफ़ की तरफ़, जो कि युनाईटेड किंग्डम के वेल्स प्रांत की राजधानी है. मैने जेम्स (हाँ यही उसका नाम था, वैसे मैने काफ़ी बाद रास्ते में पुछा था उससे) से पुछा भई कितनी दूर जाना है जो हमें दो ढाई घन्टे लगेंगे? उसने कहा "२१५ किलोमीटर".

 

२१५ किलोमीटर?? क्या उसने यही कहा था?? और समय सिर्फ़ दो ढाई घन्टे?? कहीं वह मज़ाक तो नहीं कर रहा था?? या मेरे कान तो नहीं बजे थे ना??

 

नहीं नहीं. २१५ किमी ही था. लंदन में जैसे ही हम लोगों की गाड़ी "मोटरवे" पर पहुँची मुझे एक बोर्ड दिख गया था "कार्डिफ़ २१५ कि.मी./१३२ मील". फ़िर तो यकीन ना करने का कोई कारण ही नहीं था. मगर दो ढाई घंटे?

 

मुझे पता है इन्दौर से भोपाल की दूरी करीब १९० किमी है. और सड़क से समय लगता है कम से कम चार घंटे. खैर तुलना तो नहीं करना चाहिये, वो तो अपना है – अपना मध्यप्रदेश.

 

तो हमारी गाड़ी बाकी और गाड़ियों के साथ मोटरवे पर रफ़्तार से बढी जा रही थी (जिन्हें नहीं पता कि मोटरवे क्या है, उनके लिये – हाईअवे या एक्सप्रेस हाईवे का ही दूसरा नाम है). मैने चुपचाप से स्पीडोमीटर में झाँका तो मुझे सुई ७० – ८० के बीच डोलती नजर आई. मैने सोचा इतनी गति से तो पहुँच गये अपन.

 

अचानक आगे गाडियों की लम्बी कतार रुकती हुई सी दिखी. जेम्स ने भी ब्रेक्स लगाये. गाड़ी के रुकते रुकते जो बल मैने महसूस किया तो समझ में आया कि गाड़ी तो काफ़ी रफ़्तार से चल रही थी. वैसे अगर चलती कार के सारे शीशे चढे हुये हों तो रफ़्तार समझ नहीं आती. मेरे साथ भी वही हुआ. मगर रफ़्तार तो सिर्फ़ ७० – ८० ही दिखी थी मुझे. मैने जेम्स से इस बारे में पुछा तो उसने समझाया – बबुआ – स्पीडोमीटर ध्यान से देखो. दो स्केल दिखेगी. पहली मील वाली है और अंदर वाली किलोमीटर की है. ओ हो! तो हम दरअसल मील वाली स्केल देख रहे थे और समझ रहे थे किमी वाली. तो खुलासा ये हुआ कि गड्डी चल रही थी करीब १२० – १३० किमी प्रतिघंटे की रफ़्तार से. उफ़्फ़ हम भी ना, गाड़ी को ख्वामख्वाह ही कोस रहे थे.

 

तो फ़िर बैठे बैठे क्या करें करना है कुछ काम की तर्ज पर हमने जेम्स से बातचीत का सिलसिला आगे बढाया.
 

हम: कितना पढे हो?

जेम्स: स्कूल किये हैं.

 

हम: टैक्सी कम्पनी में नौकरी करते हो?

जेम्स: नहीं. जब मर्जी होती है तब चलाते हैं. जितना चलाते हैं, उतना कमाते हैं.

 

हम: कार कम्पनी की है?

जेम्स: नहीं. हमार खुद की है. (हम थोडे से जल से गये थे ये सुन कर)

 

हम: कब से कमा रहे हो?

जेम्स: १६ साल की उम्र से.

 

हम: खाली समय में क्या करते हो?

जेम्स: फ़ुटबाल खेलते हैं. रग्बी खेलते हैं. किक बाक्सिंग में ब्लैक बैल्ट हैं. गोल्फ़ में भी हाथ आजमा चुके हैं. (हम मुँह बन्द करना भूल गये थे).

 

हम: भारतीय फ़िल्में देखी है कभी?

जेम्स: ह्म्म..एक दो देखी हैं. पर मेरी गर्लफ़्रेण्ड को ज्यादा पसंद है भारतीय फ़िल्में.

 

हम: अच्छा गर्लफ़्रेण्ड भी है?

जेम्स: ह्म्म…अभी कुछ साल भर से ज्यादा हुआ से साथ रहते. इसके पहले एक शादी किये थे. २ बच्चे भी हैं. हमारा कुछ जमा नहीं सो तलाक ले लिये रहे हैं. हाँ बच्चों से करीब रोजाना मिलते हैं. अभी फ़िलहाल गर्लफ़्रेण्ड के साथ शेयर करके रहते हैं.

 

इनके अलावा और भी कई बातें हुईं. एक संयोग देखिये. जब मैं सिंगापुर गया था, वहाँ हवाईअड्डे से कम्पनी के गेस्ट हाउस तक जिस टैक्सी में आया था. उस ड्राईवर की बीबी भी भारतीय फ़िल्मों की शौकिन थी. और यहाँ भी. याने घर घर की वही कहानी??

 

करीब देढ धंटा हम इसी तरह चलते रहे. मैने कुछ खाया नहीं था सो भूख लगने लगी थी. जेम्स ने मुझे कहा कि अगर फ़्रेश-फ़्रुश होना हो तो बता देना आगे आने वाले जॉईण्ट पर रोक दुंगा. मैने कहा नहीं यार चलते चलो. थोड़ा और खींच लो फ़िर होटल पहुँच कर ही देखा जायेगा. मगर फ़िर थोडी देर में भूख सहन नहीं हुई और जेम्स को रुकने को कहा. उसने अगले पेट्रोल पंप पर गाड़ी रोकी और बताया कि वहाँ से मैं कुछ सैण्डविच वगैरह ले पाउंगा. गाड़ी रुकी और मैं बाहर आया. कमर सीधी की.

 

अ अ अ अ अ अ अ कट कट कट कट …

 

ये मेरे दाँत और बदन की हड्डियाँ बोल रहीं थीं. जैसे तैसे कर के मैं काउंटर तक गया. वो बन्दा सब दरवाजे वगैरह बन्द कर के एक खिड़की के पीछे बैठा था. उसे मैने कुछ कहा उसने मुझे कुछ कहा जो मुझे बिल्कुल भी समझ नहीं आया. थोड़ी देर हम एक दूसरे को समझने का प्रयास करते रहे फ़िर हार कर मैं वापस गाड़ी में आ गय और जेम्स को बोला कि चलो यार, अब जो भी करना है होटल पहुँच कर ही करेंगे. हम फ़िर चल पड़े.

 

रास्ते में उसने बताया कि रात ज्यादा होने से सुरक्षा की दृष्टि से वे लोग ऐसा करते हैं कि दुकान में किसी को आने नहीं देते. मगर दिन में अंदर जाके सामान देख कर तुम ले सकते हो. वरना रात में तो तुम्हें लगभग सारे पेट्रोल पंप पर ऐसा ही मिलेगा. सो यह सीख मिली कि जो चाहिये हो उसका नाम पता पहले से पता होना चाहिये ताकि काउंटर वाले इंसान को बता सकें और वो ला कर दे सके.

 

मगर पराये देश में पराये खाने के सामान का पहले दिन से ही कैसे पता चलेगा भाई….!!

 

खैर. आधा पौन घंटा और चल कर हम लोग अंतत: होटल पहुँच ही गये.

 

जेम्स ने सामान होटल काउंटर तक रखवाया फ़िर विदा ली. मैने उसका मोबाईल नंबर ले कर रख लिया ताकि कभी जरुरत पडे तो उसे बुला सकुँ. फ़िर होटल के मैनेजर ने स्वागत किया. उसको अपना नाम बताया. उसने रजिस्टर में देख कर सुनिश्चित किया कि हाँ भई मेरे नाम की बुकिंग हुई है और कमरा भी तैयार है.

 

ब्रायन (होटल मनिजर) ने सामान उठाया और ले चला कमरे की तरफ़. कार्पेट से ढँकी हुई लकड़ी की सँकरी सी सीढियाँ, खट खट आवाज करते हम अंतत: पहुँचे कमरे तक. छोटा सा साफ़ सुथरा, गरम कमरा. उसने कमरा, टीवी, अलमारी, बाथरुम वगैरह बताया. और कहा कि सुबह नाश्ते का समय ७ से ९ का रहता है. और यहाँ कोई वेटर/रुम सर्विस वगैरह नहीं है जो भी चाहिये हो नीचे काउंटर पर आना.

 

चलो भई "फ़ायनली" पहुँच ही गये. सही सलामत और "सिंगल पीस" में. सामान रखा और कमरे को ताला लगाया और सीधे पहुँचे नीचे, ब्रायन को पुछा "भई   कुछ खाने को कहाँ मिलेगा?" उसने बताया थोडी ही दूर पर एक पेट्रोल पंप है वहाँ से कुछ खाने को जरुर मिल जायेगा, वरना बाकि तो सब इस वक्त (तब तक रात के ११:३० हो चुके थे) तक बंद हो चुका होगा. अरे बाप रे! फ़िर पेट्रोल पंप.

 

खैर निकले रात को पैदल पैदल, करीब १०० मी. पर ही थी वो जगह. अनजानी जगह, अनजाने लोग, जाने कैसे कैसे ख्याल आ रहे थे, मगर पापी पेट के लिये चला जा रहा था. काउंटर पर पहुँचा. ये साहब भी खिड़की के पीछे बैठे हुये थे. उसको कहा भाई भूखे के लिये कुछ सैण्डविच वगैरह हो तो दे दो. वो नामुराद पुछता है कौन सी. अब उसे कौन बताये और कैसे बताए कौन सी. मैने कहा – भई भूख लगने पर जो तू खाता हो वो ही दे दे. और फ़्लेवर्ड दुध हो तो वो भी दे दे. तो उसने एक सैण्डविच का पैक और एक चाकलेट मिल्क शेक ला कर दे दिया.

 

ये सामान ले कर होटल के कमरे में पहुँचा – बड़ी उम्मीद से पैक खोला, पहला कौर उत्सुकता से खाया. फ़िर बाकि का खत्म करने के लिये खाया क्योंकि भूख बड़ी लग रही थी.

रिपीट: बड़ी उम्मीद से दुध की बाटल खोली, बड़ी आशा के साथ पहला घुँट भरा, फ़िर बाकि का खत्म करने के लिये पीया क्योंकि भूख बड़ी लग रही थी.

 

(ये लोग ये क्या क्या खाते हैं यार….)
 

जैसे तैसे "खाना" खतम किया और कपड़े बदल कर जो बिस्तर पर कटे पेड़ की मानिंद टपके तो सीधे सुबह ही आँख खुली. (वो भी इसलिये कि नाश्ता मिलने का समय निकला जा रहा था).

 

किस्से को ब्रेक लगायेंगे और आगे की कथा आगे कहेंगे.

Monday, November 19, 2007

३० से ३

बाहर निकला तो भीड़ में मेरी आँखें कुछ ढुँढ रही थीं। जल्द ही मुझे वो दिख गया। मेरा नाम। हाँ वो मेरा ही नाम था। एक उँचे से गोरे से युवक के हाथ में था, एक कार्ड्बोर्ड पर बडे बडे अक्षरों में छपा हुआ था। जैसा मैने सोचा था, वो युवक वैसा तो नहीं था। ये तो बडे सलीके से कपडे पहना हुआ था। बाल अच्छे से जमे हुये थे। दिखने में भला सा पढा लिखा भी दिख रहा था। खैर मैं अपना सामान लिये हुये बढ चला उसकी तरफ़।

 

मैने उसके पास पहुँचते ही उसे हैलो कहा। उसने भी मुझे अपनी ओर आते हुये देख लिया था। उसने मेरा मुस्कुरा कर स्वागत किया। फ़िर उसने पुछा कि सारा सामान ले आये? कुछ बचा तो नहीं? चलें? मैने कहा – हाँ चल सकते हैं। वह एक तरफ़ चल पड़ा, मैं भी उसके पीछे पीछे बढ़ चला।

 

तभी मुझे कुछ याद आया। मैने उसे रुकने के लिये कहा। और आसपास नज़र दौड़ाई। एक कोने में फ़ोनबूथ भी दिख गया। थोड़ी बहुत चिल्लर तो मैने पहले ही इस काम के लिये करवा ली थी। सो एक फ़ोन लगाया और अपने पहुँचने की सूचना दी और कहा कि बस यहाँ से निकल ही रहे हैं।

 

तब तक उसने लिफ़्ट रोक दी थी। अपने सामान के साथ मैं भी लिफ़्ट में दाखिल हो गया। मैने उससे पुछा कितना समय लगेगा हमें पहुँचने में? उसने जवाब दिया ट्राफ़िक पर अवलम्बित है। कम हुआ तो दो से ढाई घंटे में पहुँच जायेंगे, वरना तीन से साढे तीन घंटे भी लग सकते हैं।

 

लिफ़्ट रुकी, बाहर आये, वह एक बड़ी सी मशीन के आगे रुका, और पार्किंग का पैसा भरा। जहाँ हम रुके थे, वहाँ से बाहर गाडियाँ पार्क की हुई दिख रही थी। शायद हम पार्किंग पर ही थे. एक दरवाज़ा था, वह आगे आगे चला, मैं सामान के साथ उसके पीछे पीछे दरवाज़े से बाहर निकला। बाहर निकलते ही अचानक ठीठक गया। वापस दरवाज़े से अन्दर जाने का मन हो गया। दरवाज़े के अन्दर तो मैं बड़ा सहज़ महसूस कर रहा था, ये अचानक क्या हुआ? कुछ   तो था, तो अचानक मेरे अन्दर तक चला गया, और मुझे रुकने पर मजबूर कर दिया। बाहर हवा जरूर चल रही थी। पर इतनी तो तेज़ नहीं थी। तभी वो वापस आया और सामान उठाने में मेरी मदद करने लगा। सामान ले कर वो आगे आगे चला और मैं उसके पीछे पीछे उसकी कार की तरफ़ बढा। दरवाजे़ से कार तक की दूरी ५० मीटर से ज्यादा नहीं होगी, पर तब तक ही समझ में आ गया की ये तो बहुत ज्यादा है – या यूँ कहना ज्यादा ठीक रहेगा कि ये तो बहुत "कम" है। कार के अन्दर जाते ही जान में जान आई,   और कुछ कुछ सामान्य सा लगने लगा।  खैर, तो बढ चले हम अपनी मंजिल की ओर.

 

अब इसके पहले और बाद में क्या क्या हुआ वो भी बताउँगा और जरुर बताउँगा, फ़िलहाल अभी तक जो भी पढा उसके बारे में आपके क्या ख्याल बने आप जरुर बताईयेगा। देखें तो सही कि हमारी बात आप तक पहुँची भी कि नहीं.

Wednesday, April 05, 2006

ये काम नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए...

हमें तो पता ही था, आप लोग यही सोचोगे, मगर नहीं यार, हम फ़िर से नौकरी नहीं बदल रहे, कुछ और बताना चाह रहे हैं.

तो जनाब अब जब सिंगापुर आ ही चुके हैं तो यहाँ के रंग में थोडा सा ढल जाया जाय कि नहीं?

बडे बुढे तो कह भी चुके हैं कि "जैसा देश वैसा भेष".

तो हम बात कर रहे हैं यहाँ के खाने की. वैसे हालिया तो सिंगापुर में हमारा पदार्पण हुआ है, और इसलिये अभी से कोई राय बनाना तो ठीक नहीं, मगर जो हमने अभी तक देखा और जाना वो ये है कि अगर हमें यहाँ का खाना खाना नहीं आया तो फ़िर तो हमारा कुछ भला नहीं होने का. कम से कम जब तक हम ' छडे'* हैं तब तक तो (वैसे बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी).

और हाँ, हम कोई पूरे सिंगापुर का हाल नहीं बता रहे, सिर्फ़ हमारे साथ जो हुआ उसका,और हमारे आस-पास का हाल बता रहे हैं.

हम जिस इलाके में रहते हैं, वहाँ १-२ कि०मी० के व्यास में कई 'फ़ुड कोर्ट' बने हुये हैं. अब 'फ़ुड कोर्ट' क्या होता है पहले तो ये समझाया जाय. एक ऐसी जगह जहाँ करीब ८-१० दुकाने होती हैं. और वो दुकानें सिर्फ़ खाने-पीने वाली ही होती हैं. इन दुकानों में खाना डिस्पले में रखा होता है. आप बता दो आपको क्या क्या चाहिये, और दुकानदार आपको वो लाकर दे देगा. इन सब दुकानों के ग्राहकों के लिये एक ही कॉमन जगह होती है बैठने के लिये. वहीं पर एक दो दुकानें शीतलपेय इत्यादि की भी होती है, जहाँ कॉफ़ी, शीतलपेय के अलावा बीयर (जीतू भैय्या ध्यान दें) भी मिलती है.

अब सिंगापुर में तो भांति भांति के लोग होते हैं, तो खान-पान भी अलग अलग होता है. तो इन फ़ुड कोर्ट्स में कुछ दुकानें चायनीज, मलेशियन, अमेरिकन खाने की और एक अदद भारतीय खाने की. अब भई 'भारतीय खाना', दरअसल, लिखा तो होता है कि 'Indian Muslim Food' मगर अधिकतर जगह ये दुकानें श्रीलंकन / तमिल लोगों द्वारा संचालित होती हैं. अब एक पुरे 'फ़ुड कोर्ट' में, सिर्फ़ एक इसी जगह आपको कुछ मसाले वाली चीज मिलेगी, मगर स्वाद अपना भारतीय हो यह कतई जरूरी नहीं. भारतीय खाने के नाम पर आपको मिलेगी आलू की सब्जी, और कुछ ऐसी सब्जीयाँ जो आपने शायद ही कहीं खाई हो. हाँ भिंडी से जाने कुछ विशेष प्रेम होता है इन्हें, वह जरूर मिलेगी. और मजे की बात- वह भी रसेदार (ग्रेवी वाली). चावल भी मिलेंगे, पराठे (नार्थ वाले नहीं साउथ वाले - मैदे के), पुरी और डोसा (जहाँ तमिल शब्द आ गया वहाँ डोसा ना हो, ऐसा तो नहीं हो सकता). और हाँ सामिष भोजन भी वहीं मिलेगा. अपने पुर्णत: शाकाहारी दोस्तों के लिये थोडी 'अपच' बात है.

हम तो खैर 'भूख लगी तो कुछ भी खा लें' वाली श्रेणी में आते हैं. अब हमारे घर मत चले जाईयेगा ये पुछने या बताने, वरना आपको एकदम विपरीत  प्रतिक्रिया मिलेगी. उनके हिसाब से तो हमसे बडा नखरेबाज कोई नहीं. हम तो सामिष और निरामिष खाने का बता रहे हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है कि हम सिर्फ़ वही वस्तु खायेंगे जो पहले खा चुके हैं, हम तो प्रयोग करने के लिये एकदम तत्पर रहते हैं.

हो उस दिन हुआ यह कि, हर दिन वही एक जैसा खाना खा कर हम बुरी तरह अघिया चुके थे. तो सोचा कि चलो आज कुछ नया ट्राय किया जाय. इधर उधर नजर दौडाई तो चायनीज पर जाकर अटके. सोचा कि अपने भारत में जो चायनीज खाना मिलता है वैसा ही कुछ रहेगा, और उम्मीद तो उससे भी बेहतर ही की थी. मगर ये क्या? एक भी डिश अपनी जानी पहचानी नहीं दिख रही थी. उपर से तुर्रा ये कि, हम उन लोगों को समझा भी नही पा रहे थे कि हमें क्या चाहिये. न हमारी अंग्रेजी उनके पल्ले पड रही थी ना उनकी हमारे. जैसे तैसे उनके डिस्पले पटल से एक डिश उनको बताई कि भैय्या 'वो' दे दो, और हम आके बैठ गये अपनी जगह. अपनी समझ से तो हम उन्हें बता के आये थे कि - नूडल्स और फ़िश चाहिये - और उसी के इंतजार में मुँह में पानी लिये बैठे थे. तो जनाब, थोडी देर के इंतजार के बाद आ ही गया हमारा 'खाना'. तो 'खाने' में क्या आया - एक बडा सा कटोरा, उसमें भरा था पानी जैसा कुछ सुप, उसमें तैर रहे थे  कुछ नूडल्स, और एक दूसरी तरह के चपटे वाले नूडल्स, और ४-५ रसगुल्ले जैसी चीज. दिख तो बिलकुल रसगुल्ले जैसी थी मगर बाद में पता चला कि वो 'फ़िश बॉल्स' थी. और तो और खाने के लिये दे दी हमें 'चॉपस्टिक' और एक सुप पीने वाला चमचा. क्या कहा? 'चॉपस्टिक' क्या होती है? अरे भैया, बिल्कुल सीधी सीधी दो डंडियाँ होती है, कोई २०-२५ से०मी० की. और उसी से खाना होता है. वो भी एक ही हाथ से.

अब हमारी हालत तो ऐसी थी कि - कभी हम खुद को, कभी हमारे खाने को देखते थे. खुद से कहा -"बेटा विजय, बहुत 'एक्सपेरिमेंट' करता है ना, ले अब भुगत."

भुख तो जोरदार लगी थी सो चढ गये सूली पर याने जुट गये उस खाने को खतम करने के अभियान पर.

पहले तो चोर नजरों से इधर उधर खाते हुए लोगों को घुरा कि देखें तो वो कैसे खा रहे हैं. दिमाग घुम गया, उनके तो हाथों में वो चॉपस्टिक्स ऐसे चिपकी थी मानो उसी के साथ पैदा हुये हों, और बडे आराम से खा रहे थे. और अपने तो हाथों और वो चॉपस्टिक ने बगावत मचा रखी थी. एक को सम्हालो तो दूसरी भागने की तैय्यारी में.जैसे तैसे तो अपने हाथों में उन्हे 'फ़िट' किया. मगर अब नई मुसीबत, खायें कैसे? नूडल्स तो पहले ही ठान चुके थे कि अपनी चॉपस्टिक पर आना ही नहीं है. और वो फ़िश बॉल्स? अब एक तो फ़िश बॉल्स और वो भी सुप में, यानि 'करेला और नीम चढा'. बिल्कुल 'फ़िश' के माफ़िक ही 'बिहेव' कर रही थी, कभी इधर फ़िसले, कभी उधर. उधर चॉपस्टिक पकडे पकडे हाथ अलग तेढे होकर दुखने लगे थे. सामने बैठा छोटा सा बच्चा तो चावल तक उसी चॉपस्टिक से दबा-दब खाये जा रहा था. और हम?

'..खडे खडे, गुबार देखते रहे' वाली स्थिति में ही थे.

एक जुगत लगाई. सोचा कि पहले चम्मच से सुप खतम कर लिया जाय, और तब बाकी चीजों को निपटाया जाय. तो भैया, पहली सीढी चढे. सुप खतम. अब? अभी भी राह कोई आसान नहीं थी. जैसे तैसे नूडल्स को चॉपस्टिक्स पर टिका कर अब जैसे ही मुँह तक लायें, नूडल्स फ़िसल कर फ़िर से कटोरे में. कोई और राह नही सुझी इसके सिवा कि बाकी माल को चॉपस्टिक्स की सहायता से चमचे पर टिका टिका कर उदरस्थ किया जाय. अंतत: करीब ४५ मि० में जैसे तैसे 'मिशन खाना' खत्म हुआ. पेट भरा या नहीं ये मत पुछियेगा.

फ़िर तो फ़ैसला कर लिया. अरे नहीं जनाब, हम पीठ दिखाने वालों में से नहीं हैं, प्रण कर लिया है कि चॉपस्टिक से खाना सीख कर ही रहेंगे. गुगल देवता से पुछा तो उन्होने बहुत सारी जगह बताई जहाँ से हम सीख सकते हैं. आप भी सीखिये. यहाँ से.

चलिये अब चलते हैं, चॉपस्टिक से खाने की प्रेक्टिस भी तो करना है.
 
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*छडे: बिन ब्याहे, कुँवारे!

Sunday, March 26, 2006

सिंगापुर प्रथम दृष्टि में

"नये आफ़िस" में अपने पैर जमाने और "आशियाना ढुंढने" (यह दास्तां बाद में) के चक्कर से कुछ फ़ुर्सत मिली तो सोचा कि जो कुछ हमें थोडे से समय में महसूस हुआ है वो आप लोगों के साथ बाँटना चाहिये.

निवासी: सिंगापुर में स्थायी रहने वालों में ज्यादातर प्रतिशत तो चायनिज लोगों का है, फ़िर मलय (मलेशिया से), और फ़िर तमिल (भारत और श्रीलंका से), बांग्लादेशी और पाकिस्तानी तो जैसे नमक है-स्वादानुसार, और बाकी इधर उधर (जापान, बर्मा, फ़िलिस्तीन इत्यादि) के.

हाँ, आने जाने (घुमन्तु) वाले तो हर जगह के मिल जायेंगे.

भाषा: चायनीज, मलय, तमिल, फ़िलिपाईन इत्यादि. हिन्दी और मराठी भी यदा कदा सुनने को मिलती है.

व्यवहार: यहाँ के लोग अधिकतर शांत और अपने काम से काम रखने वाले हैं, नियमों का पालन करने वाले होते हैं, मदद करने के लिये तो तैयार रहते हैं, हाँ अगर आप उनकी अंग्रेजी समझ सकें तो. वैसे उनकी अंग्रेजी और चायनीज में मुझे तो कोई फ़र्क नहीं लगा (दोनो ही अपने सर के उपर से जाती हैं). वाहन चालक - पैदल और सायकिल चालकों को प्राथमिकता देते हैं -कम से कम मुख्य सडकों को छोड दिया जाये तो. सडकें तो है ही काफ़ी साफ़ सुथरी, सडकों के किनारे बने हुये रास्ते (पैदल और सायकिल चालकों के लिये) भी काफ़ी अच्छे होते हैं, सायकिल और स्केटिंग करने वालों के लिये "कम्पेटिबल". स्पीडब्रेकर तो न के बराबर. सारे ट्रेफ़िक सिग्नल चालू हालत में ;) जगह जगह रास्ता पार करने के लिये "फ़ुटब्रिज" (पता नहीं उन्हे यहाँ क्या कहते हैं, मैने ये नाम दे दिया). सडक पर कोई पैचवर्क दिखा हो याद नहीं, ना ही यहाँ कहीं बिजली तारों का बोझ लिये खम्बे दिखे. ना ही कोई लेम्प पोस्ट रात को बन्द दिखा और ना ही कोई दिन के वक्त अनावश्यक रुप से चालू दिखा.

यहाँ की जो सबसे अच्छी बात लगी वो है कि यातायात के साधन. इन्हे "सुगम साधन" कहना भी ठीक ही रहेगा. "इतने" और इतने सुविधाजनक हैं कि व्यक्तिगत रुप से कुछ साधन लेने कि परोक्ष आवश्यकता तो नहीं दिखती. मगर फ़िर भी, यहाँ सडकों पर मर्सिडिज, टोयोटा, निस्सान आदि बहुतायत से दिखती हैं. मुख्य जन परिवहन साधनों में है - बस, एम.आर.टी (मेट्रो), एल.आर.टी. और टैक्सी. यहाँ के गर्म और उमस से भरे वातावरण को देखते हुए लगभग सभी साधन वातानुकूलित होते हैं.

बस: लगभग हर जगह से हर जगह के लिये बस है, बस जरुरत है तो ये पता होने की कि कहाँ से मिलेगी. बिना कण्डक्टर की बस. आगे से चढिये और पीछे से उतरना होता है. हाँ कभी कभी अगर कोई सवारी नहीं चढ रही है तो आगे से भी उतर सकते हैं, ड्राईवर मना नहीं करेगा. :) . अधिकतर बसों में टिकीट लेने की जरुरत हटा दी गई है. नहीं यार, फ़ोकट नहीं है, टिकीट है मगर तरीका अलग है. यहाँ की सरकार आधुनिक संसाधनों का इस्तेमाल बखुबी जानती है. हर बस में दोनों दरवाजों के निकट कार्ड रीडर लगे होते हैं. लोग बस में प्रवेश करते हैं, अपना कार्ड (ये कहाँ मिलता है थोडी देर में बताता हूँ) कार्डरीडर पर रखते है, और उतरते समय फ़िर से वही क्रिया, कार्ड में से अपनेआप निर्धारित किराया कट जाता है. चिल्लर वगैरह का कोई झंझट नहीं.

एम.आर.टी. (मास रेपिड ट्रांसिट याने कि मेट्रो) : मुख्य स्थानों से यात्रा करने के लिये त्वरित साधन. काफ़ी तीव्रगति की होती है. और यहाँ भी टिकीट नही वही कार्ड. प्लेटफ़ार्म पर जाने के ही पहले, स्वचालित दरवाजों पर कार्ड दिखाईये, दरवाजा खुलेगा, फ़िर जहाँ उतरे हैं वहाँ से बाहर आने के लिये फ़िर कार्ड दिखाईये, किराया अपने आप केल्क्युलेट होकर कटेगा.

कार्ड - इलेक्ट्रनिक चिप वाला होता है, मोबाईल की सिमकार्ड की तरह. पहले पैसा भरो (रिचार्ज करो) फ़िर इस्तेमाल करो, जब बैलेंस खत्म होने लगे तो किसी निर्धारित स्वचालित मशीन (ए.टी.एम. की तरह की) से रिचार्ज करो या स्टेशन जा कर टिकीट खिडकी से ले लो. है ना आसान?

एल.आर.टी. (लाईट रेपिड ट्रांसिट याने कि ??): इसके बारे में कुछ ज्यादा नही पता क्योंकि अभी तक मौका नहीं मिला इससे यात्रा करने का. इतना ही जानता हूँ कि ये भी ट्रेन का ही रुप है मगर ये हवा में चलती है, याने कि, इनकी पटरियाँ ऊँचे से पुल-टाईप पर होती हैं, और ये जनता के सर के उपर से गुजरती है.

टैक्सी: इलेक्ट्रानिक मीटर वाली, क्रेडिट कार्डरीडर से युक्त, और वातानुकूलित. पहले तीनों साधनों से थोडी महंगी. ठीक भी तो है, कार में बैठने का और जल्दी पहुँचने का भी तो मजा मिलता है.

पब्लिक फ़ोन: फ़ोन के मामले में नये आने वालों को (खासकर के भारतीयों को) थोडा समय लगता है इस बात को पचाने में कि यहाँ कोई भी एस.टी.डी./पी.सी.ओ. नहीं होते. यहां जगह जगह पर पेफ़ोन्स (काईनबाक्स) लगे होते हैं, वो भी अधिकतर कार्ड से उपयोग में आने वाले. वैसे १०सेंट से चलने वाले भी बहुत मिलते हैं. ये फ़ोन कार्ड अलग तरह के होते हैं, और (अधिकतर) किसी भी स्टोर से मिल जाते हैं. लोकल और बाह्यदेश (ओवरसीज) काल्स के लिये अलग अलग फ़ोन कार्ड लेना होते हैं. ओवरसीज काल्स बिना फ़ोनकार्ड के नहीं लगा सकते. हम भारतीय जिनके की प्रियजन चैन्नै या हैदराबाद या फ़िर बंगलौर में नही रहते (जैसे कि हम!) वो यही गम मनाते रहते हैं कि "क्यों नहीं रहते?" कारण कि कई फ़ोनकार्ड इन शहरों में ज्यादा टाक टाईम देते हैं (पता नहीं क्यूँ). सामान्यतः $8 में 60मिनिट तक टाकटाईम मिलता है, वहीं उपरोक्त "प्रिविलेज्ड" शहरों में उतने ही पैसों में 100 या 120 मिनिट तक पा सकते हैं.

फ़िर एक और बात जो यहाँ अलग लगी वो है यहाँ की कुछ वेबसाईट्स जहाँ पर आप पूरी जानकारी पा सकते हैं. जैसे:

१. परिवहन : बस, मेट्रो के संपूर्ण रास्ते की और किराये की जानकारी.
२. नक्शा : संपूर्ण सिंगापुर के नक्शे. मय सारी इमारतों और सारे मेट्रो / बस स्टाप के साथ.
(उपरोक्त दोनों की सहायता से आप अपनी यात्रा का समय और व्यय तक निकाल सकते हैं - बशर्ते आपको पता हो कि जाना कहाँ है)
३. मानव संसाधन: सिंगापुर में आने के लिये, काम करने के लिये वीजा/ वर्कपरमिट इत्यादि की जानकारी के लिये.

आज के लिये इतना ही, अगली बार सिंगापुर का कुछ और रूप ले कर आपसे मुखातिब होंगे.

Saturday, March 18, 2006

जरा हौल्ले हौल्ले चलो मोरे साजना...

(गतांक से आगे)

हम टैक्सी के लिये बाहर ही आये थे कि दरवाजे पर हमको एक बन्दे ने रोक दिया, और कहीं तो भी इशारा किया. तुरंत ही एक अदद टैक्सी हमारे सामने आ के खडी हो गई. ड्राईवर याने कि अपने टैक्सी वाले 'भैय्या', उतरे, और बिना कुछ कहे हमारा सामान उठाया और टैक्सी की डिक्की में जमा कर लिया, और हमारे लिये पीछे का दरवाजा खोल कर खडे हो गए. मगर हम तो ठहरे जन्मजात के 'कहे उत्तर, चले दक्षिण', सो फ़ट से मन में सोचा आगे ही बैठते हैं, नजारा तो आगे ही से ठीक दिखेगा. सो लपक के ड्राईवर के बगल वाली सीट पर जम गये. अब अपने 'भैय्या' भी बैठ गये, और पुछा कि कहाँ जाओगे मियां? अब क्या बोलते, चुपचाप से अपनी कम्पनी के गेस्ट हाउस का पता उनके हाथ पर धर दिया. उसे पढा, और फ़िर बस! चल दिये. अपन तो ऎसे मिजाज से बैठ गये थे जैसे कि अपने को सारे शहर की गल्ली कुचे का अता पता मालुम है -मगर मन ही मन डर रहे थे ...नहीं नहीं डर नही घबरा रहे थे, अपन डरते काँ है?

तो साहब चल दी टैक्सी, ऊप्स! सॊरी, 'कैब'! यहाँ पर टैक्सी को यही कहते हैं.

पहले तो ड्राईवर भैय्या को गौर से देखा, उपर से नीचे तक. फ़िर उनकी कैब को. आगे से पीछे तक. फ़ुल एअरकंडीशंड. डैशबोर्ड पर तमाम तरह के उपकरण. दो तरह के मीटर, एक छोटा सा प्रिंटर सा, और तो और एक कार्ड रीडर भी. वाह 'कमाल' बाबू बढिया है! अरे यही तो नाम है भाई अपने ड्राईवर भैय्या का. कमाल बिन बासरी. अरे नही भाई, पुरे सिंगापुरी ही थे, दिखते भी चायनिज टाईप के ही थे. हमने पुछा था ना. (वहीं के) लोकल ही थे. तो गप्पे लडाते हुये चले जा रहे थे. करीब ४०-४५ मि० तो काटना थे ना, और चुप तो हमसे कहीं ना रहा जाय!

उन्होने हम से पुछा कि क्या हम 'बोम्बे'(मुम्बई) से हैं? किसी हीरो हीरोईन को जानते हैं क्या? अब क्या कहें उनसे?

फ़िर तो साहब वो शुरु हो गये. उनकी धरमपत्नी, जो कि 'शाहरुख खान' की बहुत बडी फ़ैन थी, के बारे में बताने लगे. बता क्या रहे थे शिकायत कर रहे थे कि आखिर उसकी फ़िल्म में ऎसा होता क्या है? जो उसकी पत्नी फ़िल्म देखकर रो देती है? ये तो खैर मुझे भी नहीं पता. मैने पुछा भईये क्या हिन्दी समझते हो? जवाब आया, नही पर फ़िल्मों में 'चायनिज सबटाईटल' आते हैं. भई वाह!

उसने तो विनोद खन्ना, ह्रिषीकपूर, ऎश्वर्या राय, हेमामालिनी, धर्मेंद्र न जाने किस किस के नाम ले डाले. बोलने लगा कि ये लोग तो यहाँ आते रहते हैं और वो सबको जानता है. लो कल्लो बात, हम भारत में रहकर, कभी पास से देख ना पाये, और ये...!

चलो, बातें बहुत हुई, अब रास्ते पर थोडा ध्यान दिया जाय. 'गड्डी जांदीए छलांदा मारदी...' ऎसा तो कुछ ना हुआ. क्योंकि सिंगापुर में गड्डी छलांदा मारदी नईं जांदी, स्मूदली जांदीए. सडकें बहुत अच्छी होती हैं ना. जूउउम-वर्रूर्रूर्रूम करती हुई चमकती दमकती गाडियाँ भागी चली जा रही थी, मगर अपनी अपनी लेन में. ये नहीं कि जहाँ सिंग समाये चल दो. हाँ बीच बीच में इक्क दुक्का दोपहिया वाहन जरुर कुलांचे मार रहे थे. एसा लग रहा था कि ऊँट के उपर लोग बैठे हैं. अब यार है तो छोटे छोटे कद के लोग और बाईक्स चलाएंगे बड्डी बड्डी तो ऎसा ही लगेगा ना? ऊँची ऊँची इमारतें, बडे बडे फ़्लायओवर, किनारों पर तरतीब से लगे हुए पेड, साफ़ सुथरी सडकें, और जगह जगह आगे के ट्राफ़िक की सुचना देते हुए विद्युतपटल. ह्म्म्म! सही है!

हाँ, पुरे रास्ते भर हम सडक पर कुछ 'मिस' करते रहे. अरे अपने आर०टी०ओ० को. नहीं समझे? अरे यार, एक भी गाय, भैंस, बकरी, कुत्ता कुछ ना दिखा. और तो और एक भी ठोला (अपना टिरेफ़िक ट्राफ़िक पुलिसिया) तक ना दिखा.

खैर, थोडी देर में हमारी कैब एक इमारत के प्रांगण में खडी थी. हमारा सामान उतारा जा चुका था, और एक प्रिंटेड रसीद हमारे हाथ में थी. याने की 'बारगेनिंग' का कौनो चांस नहीं. हमने सोचा हमारा इन्दौर या बंगलौर होता तो पहले तो हील हुज्जत करनी पडती, भाडे की मगजमारी करते, दस बातें सुनता और सुनाता, और ज्यादा भाडा मांगता. यहाँ से लाया, वहाँ से लाया, वापस खाली जाऊँगा, सामान का एक्स्ट्रा - एट्सेक्ट्रा एट्सेक्ट्रा! पर यहाँ तो कोई रोल ही नही. भाडा बना $१९.५०. हमने $२० दिये, उसने भी चुपचाप ५० सेंट्स वापस कर दिये. हिसाब तो हिसाब है. चलो भई, अंतत: पहुँच ही गये अपने मुक्काम. 'कमाल' भाई को शुक्रिया कहा और चल पडे लिफ़्ट की तरफ़.

अरे! अब क्या है?

अभी अभी तो गेस्ट हाउस में घुसे हैं. अब नहाना धोना किया वो भी बताएं क्या?
हाँ, अब अगर कमेंट उमेंट मारना है तो लिखिये, और बाद में तशरीफ़ लाईयेगा.
हमें बहुत काम पडे हैं अभी.

फ़िर मिलते हैं, सिंगापुर की और खबरों के साथ.

जै राम जी की.

Friday, March 17, 2006

चल्ली चल्ली रे पतंग चल्ली चल्ली रे...

(पिछला अंक)

तो जी अपना बोझा ढोते हुये बढ चले अपने उडनखटोले की तरफ़, मन में यह सोचते हुये कि "यार सिंगापुर वाले तो अधिकतर चायनिज टाईप के होते हैं, और चायनिज तो नाटे नाटे होते हैं, तो "लाजिक" कहता है कि अपने को छोटी छोटी एयरहोस्टेस दिखेंगी". तो मन में ये रुप लिये हुये हम दरवज्जे तक पहुँचे. पहुँचे तो पहुँचे, और वहीं के वहीं ठिठक गये. बाप रे! ये तो पुरी -"ऊँचे लोग ऊँची पसन्द" है!! हम तो पहले ही से कमर झुका के चल रहे थे कि कहीं गलती से उसे देखना 'मिस' ना कर दें. अब ये जलवे देखे तो कमर भी सीधी करनी पडी और गरदन भी. हमने सोचा हो सकता है कि किसी स्टूल पर खडी हो, पर नहीं. और फ़िर इत्ती गोरी, जैसे कि फ़ेयर एण्ड लवली की पुरी की पुरी ट्युब खतम कर के आई हो. और फ़िर सोचा...नहीं नहीं और ज्यादा सोचने का टाईम नहीं मिला, आखिर पीछे वाले लोगों को भी चांस चाहिये था ना?... अरे, हवाईजहाज में एन्ट्री का. जाने क्या क्या सोचते हो यार आप लोग!

तो भाई लोगों ने धकियाया और हम सीधे अन्दर! बाप रे! इत्ता बडा हवाई जहाज! अरे अपने लोकल तो छोटे छोटे होते हैं, कहीं से भी चढो, चार कदम में पुरा जहाज नाप लो, यहाँ तो पुरी १०० मीटर की पैदल चाल चलनी पडी अपनी सीट तक पहँचते पहँचते, और तो और, पीछे बहुत सारा हवाई जहाज तो बचा ही था. बीच बीच में 'हाय', 'हेल्लो', 'गुडईवनिंग सर' के मीठे बाण झेलते हुये फ़ायनली अपनी सीट तक पहुँचे. अपनी किस्मत पर पुरा यकीं था कि जब अपने ही यहाँ किसी टेम्पो, मिनी बस, बस, ट्रेन वगैरह में किसी "राही हो खुबसुरत" टाईप का सान्निध्य नही मिलता तो ये हवाई जहाज कौन सा सुरखाब के पर लगा के आया है. सो, सारे 'उन' तरह के 'सहयात्रियों' को एक एक कर पीछे छोडते हुये जब हम अपनी सीट पर पहुँचे तो एक महाशय को ही हमारी बगल वाली सीट पर पाया. यह तो अच्छा हुआ था कि हमने खिडकी वाली सीट चाही थी और वो ही हमें मिली थी, वरना ४:३० घंटे सोने के अलावा और क्या करते. अपना बोझा उपर सामान के कप्पे में जैसे तैसे धंसा कर हम भी अपनी सीट पर धंस गये.

बैठते ही अपना बचपना जाग उठा. ये क्या है? वो क्या है? इसमें क्या रखा है? उसमे क्या रखा है? सीट कैसे स्ट्रेट करें? फ़िर से सीटींग वाली पोजिशन में कैसे लायें? खाने की ट्रे कैसे खोलें? कैसे बन्द करें? अपनी सीट से कौन कौन दिख रहा है? कौन नहीं दिख रहा? जो नही दिख रहा उसे कौन से एंगल से देंखे? जिनको बाहर ताडा था वो लोग कहाँ है? एयरहोस्टेस कौन सा बटन दबाने से आयेगी? बाहर कौन कौन से हवाई जहाज दिख रहे हैं? वगैरह वगैरह..!हर हवाई जहाज अलग होता है यार!

अरे, ये क्या दिख रहा है? अपने सामने? हर सीट पर टी०वी० फ़िट है? वाह! पर ये बन्द क्यों है? अपने पडोसी को देखा तो वो भी लगे पडे थे टी०वी० चालु करने के पीछे. तभी कुछ हलचल सी लगी, कुछ हिला डुला, ओह! ये तो अपना ही जहाज हिला था. तो साहब बढ चला अपना खटोला अपने रनवे की तरफ़. वो कैप्टन और वो एयरहोस्टेस कुछ बताने की कोशिश में लगे थे. अपनी सीट बेल्ट ऎसे बांधो, ये लाईफ़ जैकेट, वो आक्सीजन मास्क, ये करो वो करो, पर अपन तो बिन्दास, टी०वी० चालु करो अभियान में लगे पडे थे. अपने को तो सब पताईच्च था ना. कोई पहली बार थोडे ना बैठे थे.

आखिरकार, पता नही कैसे, अपने आप या हमारे कुछ क्रियाकलापों के कारण वो टी०वी० चालू हो ही गया. हमने चुपचाप से पडोस में देखा, वो साहब अपने कुर्सी के हथ्थे पर झुक के कुछ तो भी करने की कोशिश में लगे थे, हमने भी देखा - कि भाई देखें तो अपनी कुर्सी के हथ्थे में है क्या ऎसा? अरे वाह! तो यहाँ छिपा रखा है टी०वी० का रिमोट. अरे यार! पर वो तो फ़िट थ वहीं पर, और ऎसे झुक झुक के टी०वी० ओपरेट करेंगे तो कमर ही बोल जायगी. थोडा कामनसेंस का उपयोग किया और आईल्ला! वो रिमोट तो बाहर चला आया. अब हमने गर्व से अपने पडोसी को भी बताया कि मिंया ऎसे करो. वो भी खुश अपन भी.

तभी अनाउंसमेंट हुआ कि 'सावधान हम उडने वाले हैं', और अगले कुछ ही क्षणों में हम बंगलौर के आसमान में. एक तो रात का समां, और खिडकी की सीट, वाह साहब मजा आ गया. बंगलौर इससे पहले कभी इतना सुंदर नही दिखा. गाडियां, बिल्डिंग, पुल, रोड सब छोटे होते होते धीरे धीरे धूमिल हो गये. जाने क्यों एक कसक सी उठी, कि - आह! छुट चला अपना देश!

खैर, जब बाहर कुछ भी दिखना बंद हो गया तब हमने अन्दर के माहौल का जायजा लिया. लोगबाग वो गरम तौलियों में मुँह पोछ रहे थे, वो ज्युस वगैरह पी रहे थे, हमने भी वही कर लिया. तभी मन में विचार आया कि -मियां रात तो हो चुकी है, ये लोग खाने को कुछ देंगे कि नही? या बस ज्युस में ही टरका देंगे? अब तक तो भुख भी अपनी चरम पर पहुँच चुकी थी. रहा नही गया, बटन दबाया गया, एयरहोस्टेस को बुलाया गया, बडी शालीनता से पुछा गया कि ये ज्युस ब्युस से कुछ ना होने का, हमें तो भुख लगी है. तो उन्होने भी पुरी शालीनता से कह दिया कि ज्यादा मत कुलबुलाओ, अभी ला रहे हैं खाना. जब तक खाना आया, तब तक टी०वी० से मन बहलाया गया, सारे चैनल्स छान लिये गये, कन्फ़र्म कर लिया कि नही यार शायद हवाई जहाज में डिसेन्ट प्रोग्राम्स ही दिखाते होंगे. फ़िर खाना सुता, पहले तो कांटे छुरी से, फ़िर हाथों से, और फ़ायनली डायरेक्ट वो बाउल्स ही से. 'जुडवा' पिक्चर का गाना मन ही मन रिमिक्स किया - 'एक बार से मन नही भरता और दे मुझे दोबारा'- 'और' मांगा, तब कहीं जाके अपनी क्षुधा शांत हुई.

आह! खाने के बाद अब टी०वी०! पहले से छाने हुये चैनल्स फ़िर छाने. थोडी देर ये, थोडी देर वो करके पुरे चैनल्स देख मारे, आखिर पैसा तो वसुलना था ना. अब तो कुछ ना बचा करने का, ना बाहर कुछ दिखे, ना अंदर. जब तक खाना चल रहा था, तब तक, थोडी तो चहल पहल मची हुई थी अब तो नीरवता छा गई थी, सोचा चलो थोडी देर सो लिया जाय. बीते हुये दिन याद करते हुये, और आने वाले दिनों के बारे में सोचते हुए जाने कब आँख लगी पता ही नही चला.

अचानक कुछ हलचल महसुस की तो आँख खुल गई. घडी देखी तो पता चला करीब २ घंटे सो चुका था. बाहर झाँका तो कुछ उजाला सा दिखा. नीचे देखा तो एक शहर. एक नींद से जागता हुआ उनींदा सा शहर. अनाउंस हो रहा था कि करिब ३० मिनिट में जहाज सिंगापुर में उतरेगा. जितना हो सकता था, उतना बाहर का नजारा देखने की कोशिश में था. समुद्र तट, बंदरगाह, छोटे बडे पानी के जहाज, ऊँची ऊँची बिल्डिंग्स, फ़्लायाओवर्स, लंबी लंबी सडकें. सच, हवाई जहाज से नीचे का नजारा बहुत सुंदर दिख रहा था, काश, कैमेरा होता!

तो, तय समय पर हम सिंगापुर हवाई अड्डे पर उतर ही गये. इम्मीग्रेशन काउंटर के पहले देखा कि फ़ोकट के फ़ोन बुथ हैं, लोकल काल्स फ़्री. वाह! क्या बात है! सोचा कि पहले अपना सामान भेला(जमा) कर लिया जाय, इम्मीग्रेशन के लफ़डे से निकला जाय और फ़िर अपने संपर्क सुत्र को कॊल किया जाय. पर धत्तेरेकि! इम्मीग्रेशन पार करते ही फ़्री वाले फ़ोन बुथ दिखे ही ना. चलो जैसे तैसे करके एक जगह कुछ फ़ोन बुथ दिखे शायद कोईन बाक्स वाले. पर अपन तो अपन हैं, अपन पहुँचे एक टैक्सी के काउंटर पर, एक सुकन्या ने स्वागत किया, बोली, टैक्सी चाहिये? हम बोले चाहिये तो है, पर पहले एक फ़ोन करना था. उसने झट से अपने काउंटर से फ़ोन लगा दिया. हमारे संपर्कसुत्र ने बताया कि बन्धु सीधे बाहर निकल आओ और सिटी कैब पकड लो, सस्ते में आ जाओगे. वो बिचारी सुकन्या इन्तजार में थी कि हम उससे टैक्सी बुक करवायें, हम बेमुरव्वत जैसे, नकली मुस्कान मुँह पर चिपकाये 'थैक्यू' बोल के सीधे बाहर निकल लिये. पता नहीं चायनीज में क्या गाली दी होगी उसने.

एक सिक्युरिटी से पुछा, और आ गये वहाँ, जहाँ सिटी कैब आपका इन्तजार करती है. अपन बाहर आये, तो झट से एक टैक्सी आ गई अपने लिये, टैक्सी वाले 'भैय्या' उतरे, हमारा सामान डाला डिक्की में और पीछे का दरवाजा खोला, मगर हम तो झट से बैठ गए आगे वाली सीट पर. यार आगे से नजारा समझ मे आता है ना इसलिये. टैक्सी वाले 'भैय्या'को पता बताया, और लो चले हम अपनी कम्पनी के गेस्ट हाउस की तरफ़.

अब टैक्सी वाले 'भैय्या' का, उनसे हुई गुफ़्तगू का और सिंगापुर की सडकों का वर्णन अगली बार.