Friday, March 17, 2006

चल्ली चल्ली रे पतंग चल्ली चल्ली रे...

(पिछला अंक)

तो जी अपना बोझा ढोते हुये बढ चले अपने उडनखटोले की तरफ़, मन में यह सोचते हुये कि "यार सिंगापुर वाले तो अधिकतर चायनिज टाईप के होते हैं, और चायनिज तो नाटे नाटे होते हैं, तो "लाजिक" कहता है कि अपने को छोटी छोटी एयरहोस्टेस दिखेंगी". तो मन में ये रुप लिये हुये हम दरवज्जे तक पहुँचे. पहुँचे तो पहुँचे, और वहीं के वहीं ठिठक गये. बाप रे! ये तो पुरी -"ऊँचे लोग ऊँची पसन्द" है!! हम तो पहले ही से कमर झुका के चल रहे थे कि कहीं गलती से उसे देखना 'मिस' ना कर दें. अब ये जलवे देखे तो कमर भी सीधी करनी पडी और गरदन भी. हमने सोचा हो सकता है कि किसी स्टूल पर खडी हो, पर नहीं. और फ़िर इत्ती गोरी, जैसे कि फ़ेयर एण्ड लवली की पुरी की पुरी ट्युब खतम कर के आई हो. और फ़िर सोचा...नहीं नहीं और ज्यादा सोचने का टाईम नहीं मिला, आखिर पीछे वाले लोगों को भी चांस चाहिये था ना?... अरे, हवाईजहाज में एन्ट्री का. जाने क्या क्या सोचते हो यार आप लोग!

तो भाई लोगों ने धकियाया और हम सीधे अन्दर! बाप रे! इत्ता बडा हवाई जहाज! अरे अपने लोकल तो छोटे छोटे होते हैं, कहीं से भी चढो, चार कदम में पुरा जहाज नाप लो, यहाँ तो पुरी १०० मीटर की पैदल चाल चलनी पडी अपनी सीट तक पहँचते पहँचते, और तो और, पीछे बहुत सारा हवाई जहाज तो बचा ही था. बीच बीच में 'हाय', 'हेल्लो', 'गुडईवनिंग सर' के मीठे बाण झेलते हुये फ़ायनली अपनी सीट तक पहुँचे. अपनी किस्मत पर पुरा यकीं था कि जब अपने ही यहाँ किसी टेम्पो, मिनी बस, बस, ट्रेन वगैरह में किसी "राही हो खुबसुरत" टाईप का सान्निध्य नही मिलता तो ये हवाई जहाज कौन सा सुरखाब के पर लगा के आया है. सो, सारे 'उन' तरह के 'सहयात्रियों' को एक एक कर पीछे छोडते हुये जब हम अपनी सीट पर पहुँचे तो एक महाशय को ही हमारी बगल वाली सीट पर पाया. यह तो अच्छा हुआ था कि हमने खिडकी वाली सीट चाही थी और वो ही हमें मिली थी, वरना ४:३० घंटे सोने के अलावा और क्या करते. अपना बोझा उपर सामान के कप्पे में जैसे तैसे धंसा कर हम भी अपनी सीट पर धंस गये.

बैठते ही अपना बचपना जाग उठा. ये क्या है? वो क्या है? इसमें क्या रखा है? उसमे क्या रखा है? सीट कैसे स्ट्रेट करें? फ़िर से सीटींग वाली पोजिशन में कैसे लायें? खाने की ट्रे कैसे खोलें? कैसे बन्द करें? अपनी सीट से कौन कौन दिख रहा है? कौन नहीं दिख रहा? जो नही दिख रहा उसे कौन से एंगल से देंखे? जिनको बाहर ताडा था वो लोग कहाँ है? एयरहोस्टेस कौन सा बटन दबाने से आयेगी? बाहर कौन कौन से हवाई जहाज दिख रहे हैं? वगैरह वगैरह..!हर हवाई जहाज अलग होता है यार!

अरे, ये क्या दिख रहा है? अपने सामने? हर सीट पर टी०वी० फ़िट है? वाह! पर ये बन्द क्यों है? अपने पडोसी को देखा तो वो भी लगे पडे थे टी०वी० चालु करने के पीछे. तभी कुछ हलचल सी लगी, कुछ हिला डुला, ओह! ये तो अपना ही जहाज हिला था. तो साहब बढ चला अपना खटोला अपने रनवे की तरफ़. वो कैप्टन और वो एयरहोस्टेस कुछ बताने की कोशिश में लगे थे. अपनी सीट बेल्ट ऎसे बांधो, ये लाईफ़ जैकेट, वो आक्सीजन मास्क, ये करो वो करो, पर अपन तो बिन्दास, टी०वी० चालु करो अभियान में लगे पडे थे. अपने को तो सब पताईच्च था ना. कोई पहली बार थोडे ना बैठे थे.

आखिरकार, पता नही कैसे, अपने आप या हमारे कुछ क्रियाकलापों के कारण वो टी०वी० चालू हो ही गया. हमने चुपचाप से पडोस में देखा, वो साहब अपने कुर्सी के हथ्थे पर झुक के कुछ तो भी करने की कोशिश में लगे थे, हमने भी देखा - कि भाई देखें तो अपनी कुर्सी के हथ्थे में है क्या ऎसा? अरे वाह! तो यहाँ छिपा रखा है टी०वी० का रिमोट. अरे यार! पर वो तो फ़िट थ वहीं पर, और ऎसे झुक झुक के टी०वी० ओपरेट करेंगे तो कमर ही बोल जायगी. थोडा कामनसेंस का उपयोग किया और आईल्ला! वो रिमोट तो बाहर चला आया. अब हमने गर्व से अपने पडोसी को भी बताया कि मिंया ऎसे करो. वो भी खुश अपन भी.

तभी अनाउंसमेंट हुआ कि 'सावधान हम उडने वाले हैं', और अगले कुछ ही क्षणों में हम बंगलौर के आसमान में. एक तो रात का समां, और खिडकी की सीट, वाह साहब मजा आ गया. बंगलौर इससे पहले कभी इतना सुंदर नही दिखा. गाडियां, बिल्डिंग, पुल, रोड सब छोटे होते होते धीरे धीरे धूमिल हो गये. जाने क्यों एक कसक सी उठी, कि - आह! छुट चला अपना देश!

खैर, जब बाहर कुछ भी दिखना बंद हो गया तब हमने अन्दर के माहौल का जायजा लिया. लोगबाग वो गरम तौलियों में मुँह पोछ रहे थे, वो ज्युस वगैरह पी रहे थे, हमने भी वही कर लिया. तभी मन में विचार आया कि -मियां रात तो हो चुकी है, ये लोग खाने को कुछ देंगे कि नही? या बस ज्युस में ही टरका देंगे? अब तक तो भुख भी अपनी चरम पर पहुँच चुकी थी. रहा नही गया, बटन दबाया गया, एयरहोस्टेस को बुलाया गया, बडी शालीनता से पुछा गया कि ये ज्युस ब्युस से कुछ ना होने का, हमें तो भुख लगी है. तो उन्होने भी पुरी शालीनता से कह दिया कि ज्यादा मत कुलबुलाओ, अभी ला रहे हैं खाना. जब तक खाना आया, तब तक टी०वी० से मन बहलाया गया, सारे चैनल्स छान लिये गये, कन्फ़र्म कर लिया कि नही यार शायद हवाई जहाज में डिसेन्ट प्रोग्राम्स ही दिखाते होंगे. फ़िर खाना सुता, पहले तो कांटे छुरी से, फ़िर हाथों से, और फ़ायनली डायरेक्ट वो बाउल्स ही से. 'जुडवा' पिक्चर का गाना मन ही मन रिमिक्स किया - 'एक बार से मन नही भरता और दे मुझे दोबारा'- 'और' मांगा, तब कहीं जाके अपनी क्षुधा शांत हुई.

आह! खाने के बाद अब टी०वी०! पहले से छाने हुये चैनल्स फ़िर छाने. थोडी देर ये, थोडी देर वो करके पुरे चैनल्स देख मारे, आखिर पैसा तो वसुलना था ना. अब तो कुछ ना बचा करने का, ना बाहर कुछ दिखे, ना अंदर. जब तक खाना चल रहा था, तब तक, थोडी तो चहल पहल मची हुई थी अब तो नीरवता छा गई थी, सोचा चलो थोडी देर सो लिया जाय. बीते हुये दिन याद करते हुये, और आने वाले दिनों के बारे में सोचते हुए जाने कब आँख लगी पता ही नही चला.

अचानक कुछ हलचल महसुस की तो आँख खुल गई. घडी देखी तो पता चला करीब २ घंटे सो चुका था. बाहर झाँका तो कुछ उजाला सा दिखा. नीचे देखा तो एक शहर. एक नींद से जागता हुआ उनींदा सा शहर. अनाउंस हो रहा था कि करिब ३० मिनिट में जहाज सिंगापुर में उतरेगा. जितना हो सकता था, उतना बाहर का नजारा देखने की कोशिश में था. समुद्र तट, बंदरगाह, छोटे बडे पानी के जहाज, ऊँची ऊँची बिल्डिंग्स, फ़्लायाओवर्स, लंबी लंबी सडकें. सच, हवाई जहाज से नीचे का नजारा बहुत सुंदर दिख रहा था, काश, कैमेरा होता!

तो, तय समय पर हम सिंगापुर हवाई अड्डे पर उतर ही गये. इम्मीग्रेशन काउंटर के पहले देखा कि फ़ोकट के फ़ोन बुथ हैं, लोकल काल्स फ़्री. वाह! क्या बात है! सोचा कि पहले अपना सामान भेला(जमा) कर लिया जाय, इम्मीग्रेशन के लफ़डे से निकला जाय और फ़िर अपने संपर्क सुत्र को कॊल किया जाय. पर धत्तेरेकि! इम्मीग्रेशन पार करते ही फ़्री वाले फ़ोन बुथ दिखे ही ना. चलो जैसे तैसे करके एक जगह कुछ फ़ोन बुथ दिखे शायद कोईन बाक्स वाले. पर अपन तो अपन हैं, अपन पहुँचे एक टैक्सी के काउंटर पर, एक सुकन्या ने स्वागत किया, बोली, टैक्सी चाहिये? हम बोले चाहिये तो है, पर पहले एक फ़ोन करना था. उसने झट से अपने काउंटर से फ़ोन लगा दिया. हमारे संपर्कसुत्र ने बताया कि बन्धु सीधे बाहर निकल आओ और सिटी कैब पकड लो, सस्ते में आ जाओगे. वो बिचारी सुकन्या इन्तजार में थी कि हम उससे टैक्सी बुक करवायें, हम बेमुरव्वत जैसे, नकली मुस्कान मुँह पर चिपकाये 'थैक्यू' बोल के सीधे बाहर निकल लिये. पता नहीं चायनीज में क्या गाली दी होगी उसने.

एक सिक्युरिटी से पुछा, और आ गये वहाँ, जहाँ सिटी कैब आपका इन्तजार करती है. अपन बाहर आये, तो झट से एक टैक्सी आ गई अपने लिये, टैक्सी वाले 'भैय्या' उतरे, हमारा सामान डाला डिक्की में और पीछे का दरवाजा खोला, मगर हम तो झट से बैठ गए आगे वाली सीट पर. यार आगे से नजारा समझ मे आता है ना इसलिये. टैक्सी वाले 'भैय्या'को पता बताया, और लो चले हम अपनी कम्पनी के गेस्ट हाउस की तरफ़.

अब टैक्सी वाले 'भैय्या' का, उनसे हुई गुफ़्तगू का और सिंगापुर की सडकों का वर्णन अगली बार.

4 comments:

संजय बेंगाणी said...

आपने तो बहुत रोचक वर्णन किया हैं, हवाई यात्रा का. अगली 'सिंगापुरिया' पोस्ट का इंतजार हैं.

Udan Tashtari said...

बहुत सुंदर चित्रण है.
बधाई.
समीर लाल

Anonymous said...

bare acchi udai hai patang bas bhaya sambhal ke udaiyo katne na paaye....

Jitendra Chaudhary said...

हाय ला! एक ही टिकट मे दो दो लोगों का माल खा गये। कोई मुरव्वत नही की। खाए तो खाए,ऊपर से पड़ोसी के खाने पर भी नजर रखी,
ये
अच्छी
बात
नही
है।
खैर सिंगापुर तो पहुँच ही गये, उस लड़की ने तुम चीनी भाषा मे कड़का ही बोला होगा, ना मानो तो पलट कर जाओ और पूछ लो।