Sunday, March 26, 2006

सिंगापुर प्रथम दृष्टि में

"नये आफ़िस" में अपने पैर जमाने और "आशियाना ढुंढने" (यह दास्तां बाद में) के चक्कर से कुछ फ़ुर्सत मिली तो सोचा कि जो कुछ हमें थोडे से समय में महसूस हुआ है वो आप लोगों के साथ बाँटना चाहिये.

निवासी: सिंगापुर में स्थायी रहने वालों में ज्यादातर प्रतिशत तो चायनिज लोगों का है, फ़िर मलय (मलेशिया से), और फ़िर तमिल (भारत और श्रीलंका से), बांग्लादेशी और पाकिस्तानी तो जैसे नमक है-स्वादानुसार, और बाकी इधर उधर (जापान, बर्मा, फ़िलिस्तीन इत्यादि) के.

हाँ, आने जाने (घुमन्तु) वाले तो हर जगह के मिल जायेंगे.

भाषा: चायनीज, मलय, तमिल, फ़िलिपाईन इत्यादि. हिन्दी और मराठी भी यदा कदा सुनने को मिलती है.

व्यवहार: यहाँ के लोग अधिकतर शांत और अपने काम से काम रखने वाले हैं, नियमों का पालन करने वाले होते हैं, मदद करने के लिये तो तैयार रहते हैं, हाँ अगर आप उनकी अंग्रेजी समझ सकें तो. वैसे उनकी अंग्रेजी और चायनीज में मुझे तो कोई फ़र्क नहीं लगा (दोनो ही अपने सर के उपर से जाती हैं). वाहन चालक - पैदल और सायकिल चालकों को प्राथमिकता देते हैं -कम से कम मुख्य सडकों को छोड दिया जाये तो. सडकें तो है ही काफ़ी साफ़ सुथरी, सडकों के किनारे बने हुये रास्ते (पैदल और सायकिल चालकों के लिये) भी काफ़ी अच्छे होते हैं, सायकिल और स्केटिंग करने वालों के लिये "कम्पेटिबल". स्पीडब्रेकर तो न के बराबर. सारे ट्रेफ़िक सिग्नल चालू हालत में ;) जगह जगह रास्ता पार करने के लिये "फ़ुटब्रिज" (पता नहीं उन्हे यहाँ क्या कहते हैं, मैने ये नाम दे दिया). सडक पर कोई पैचवर्क दिखा हो याद नहीं, ना ही यहाँ कहीं बिजली तारों का बोझ लिये खम्बे दिखे. ना ही कोई लेम्प पोस्ट रात को बन्द दिखा और ना ही कोई दिन के वक्त अनावश्यक रुप से चालू दिखा.

यहाँ की जो सबसे अच्छी बात लगी वो है कि यातायात के साधन. इन्हे "सुगम साधन" कहना भी ठीक ही रहेगा. "इतने" और इतने सुविधाजनक हैं कि व्यक्तिगत रुप से कुछ साधन लेने कि परोक्ष आवश्यकता तो नहीं दिखती. मगर फ़िर भी, यहाँ सडकों पर मर्सिडिज, टोयोटा, निस्सान आदि बहुतायत से दिखती हैं. मुख्य जन परिवहन साधनों में है - बस, एम.आर.टी (मेट्रो), एल.आर.टी. और टैक्सी. यहाँ के गर्म और उमस से भरे वातावरण को देखते हुए लगभग सभी साधन वातानुकूलित होते हैं.

बस: लगभग हर जगह से हर जगह के लिये बस है, बस जरुरत है तो ये पता होने की कि कहाँ से मिलेगी. बिना कण्डक्टर की बस. आगे से चढिये और पीछे से उतरना होता है. हाँ कभी कभी अगर कोई सवारी नहीं चढ रही है तो आगे से भी उतर सकते हैं, ड्राईवर मना नहीं करेगा. :) . अधिकतर बसों में टिकीट लेने की जरुरत हटा दी गई है. नहीं यार, फ़ोकट नहीं है, टिकीट है मगर तरीका अलग है. यहाँ की सरकार आधुनिक संसाधनों का इस्तेमाल बखुबी जानती है. हर बस में दोनों दरवाजों के निकट कार्ड रीडर लगे होते हैं. लोग बस में प्रवेश करते हैं, अपना कार्ड (ये कहाँ मिलता है थोडी देर में बताता हूँ) कार्डरीडर पर रखते है, और उतरते समय फ़िर से वही क्रिया, कार्ड में से अपनेआप निर्धारित किराया कट जाता है. चिल्लर वगैरह का कोई झंझट नहीं.

एम.आर.टी. (मास रेपिड ट्रांसिट याने कि मेट्रो) : मुख्य स्थानों से यात्रा करने के लिये त्वरित साधन. काफ़ी तीव्रगति की होती है. और यहाँ भी टिकीट नही वही कार्ड. प्लेटफ़ार्म पर जाने के ही पहले, स्वचालित दरवाजों पर कार्ड दिखाईये, दरवाजा खुलेगा, फ़िर जहाँ उतरे हैं वहाँ से बाहर आने के लिये फ़िर कार्ड दिखाईये, किराया अपने आप केल्क्युलेट होकर कटेगा.

कार्ड - इलेक्ट्रनिक चिप वाला होता है, मोबाईल की सिमकार्ड की तरह. पहले पैसा भरो (रिचार्ज करो) फ़िर इस्तेमाल करो, जब बैलेंस खत्म होने लगे तो किसी निर्धारित स्वचालित मशीन (ए.टी.एम. की तरह की) से रिचार्ज करो या स्टेशन जा कर टिकीट खिडकी से ले लो. है ना आसान?

एल.आर.टी. (लाईट रेपिड ट्रांसिट याने कि ??): इसके बारे में कुछ ज्यादा नही पता क्योंकि अभी तक मौका नहीं मिला इससे यात्रा करने का. इतना ही जानता हूँ कि ये भी ट्रेन का ही रुप है मगर ये हवा में चलती है, याने कि, इनकी पटरियाँ ऊँचे से पुल-टाईप पर होती हैं, और ये जनता के सर के उपर से गुजरती है.

टैक्सी: इलेक्ट्रानिक मीटर वाली, क्रेडिट कार्डरीडर से युक्त, और वातानुकूलित. पहले तीनों साधनों से थोडी महंगी. ठीक भी तो है, कार में बैठने का और जल्दी पहुँचने का भी तो मजा मिलता है.

पब्लिक फ़ोन: फ़ोन के मामले में नये आने वालों को (खासकर के भारतीयों को) थोडा समय लगता है इस बात को पचाने में कि यहाँ कोई भी एस.टी.डी./पी.सी.ओ. नहीं होते. यहां जगह जगह पर पेफ़ोन्स (काईनबाक्स) लगे होते हैं, वो भी अधिकतर कार्ड से उपयोग में आने वाले. वैसे १०सेंट से चलने वाले भी बहुत मिलते हैं. ये फ़ोन कार्ड अलग तरह के होते हैं, और (अधिकतर) किसी भी स्टोर से मिल जाते हैं. लोकल और बाह्यदेश (ओवरसीज) काल्स के लिये अलग अलग फ़ोन कार्ड लेना होते हैं. ओवरसीज काल्स बिना फ़ोनकार्ड के नहीं लगा सकते. हम भारतीय जिनके की प्रियजन चैन्नै या हैदराबाद या फ़िर बंगलौर में नही रहते (जैसे कि हम!) वो यही गम मनाते रहते हैं कि "क्यों नहीं रहते?" कारण कि कई फ़ोनकार्ड इन शहरों में ज्यादा टाक टाईम देते हैं (पता नहीं क्यूँ). सामान्यतः $8 में 60मिनिट तक टाकटाईम मिलता है, वहीं उपरोक्त "प्रिविलेज्ड" शहरों में उतने ही पैसों में 100 या 120 मिनिट तक पा सकते हैं.

फ़िर एक और बात जो यहाँ अलग लगी वो है यहाँ की कुछ वेबसाईट्स जहाँ पर आप पूरी जानकारी पा सकते हैं. जैसे:

१. परिवहन : बस, मेट्रो के संपूर्ण रास्ते की और किराये की जानकारी.
२. नक्शा : संपूर्ण सिंगापुर के नक्शे. मय सारी इमारतों और सारे मेट्रो / बस स्टाप के साथ.
(उपरोक्त दोनों की सहायता से आप अपनी यात्रा का समय और व्यय तक निकाल सकते हैं - बशर्ते आपको पता हो कि जाना कहाँ है)
३. मानव संसाधन: सिंगापुर में आने के लिये, काम करने के लिये वीजा/ वर्कपरमिट इत्यादि की जानकारी के लिये.

आज के लिये इतना ही, अगली बार सिंगापुर का कुछ और रूप ले कर आपसे मुखातिब होंगे.

Saturday, March 18, 2006

जरा हौल्ले हौल्ले चलो मोरे साजना...

(गतांक से आगे)

हम टैक्सी के लिये बाहर ही आये थे कि दरवाजे पर हमको एक बन्दे ने रोक दिया, और कहीं तो भी इशारा किया. तुरंत ही एक अदद टैक्सी हमारे सामने आ के खडी हो गई. ड्राईवर याने कि अपने टैक्सी वाले 'भैय्या', उतरे, और बिना कुछ कहे हमारा सामान उठाया और टैक्सी की डिक्की में जमा कर लिया, और हमारे लिये पीछे का दरवाजा खोल कर खडे हो गए. मगर हम तो ठहरे जन्मजात के 'कहे उत्तर, चले दक्षिण', सो फ़ट से मन में सोचा आगे ही बैठते हैं, नजारा तो आगे ही से ठीक दिखेगा. सो लपक के ड्राईवर के बगल वाली सीट पर जम गये. अब अपने 'भैय्या' भी बैठ गये, और पुछा कि कहाँ जाओगे मियां? अब क्या बोलते, चुपचाप से अपनी कम्पनी के गेस्ट हाउस का पता उनके हाथ पर धर दिया. उसे पढा, और फ़िर बस! चल दिये. अपन तो ऎसे मिजाज से बैठ गये थे जैसे कि अपने को सारे शहर की गल्ली कुचे का अता पता मालुम है -मगर मन ही मन डर रहे थे ...नहीं नहीं डर नही घबरा रहे थे, अपन डरते काँ है?

तो साहब चल दी टैक्सी, ऊप्स! सॊरी, 'कैब'! यहाँ पर टैक्सी को यही कहते हैं.

पहले तो ड्राईवर भैय्या को गौर से देखा, उपर से नीचे तक. फ़िर उनकी कैब को. आगे से पीछे तक. फ़ुल एअरकंडीशंड. डैशबोर्ड पर तमाम तरह के उपकरण. दो तरह के मीटर, एक छोटा सा प्रिंटर सा, और तो और एक कार्ड रीडर भी. वाह 'कमाल' बाबू बढिया है! अरे यही तो नाम है भाई अपने ड्राईवर भैय्या का. कमाल बिन बासरी. अरे नही भाई, पुरे सिंगापुरी ही थे, दिखते भी चायनिज टाईप के ही थे. हमने पुछा था ना. (वहीं के) लोकल ही थे. तो गप्पे लडाते हुये चले जा रहे थे. करीब ४०-४५ मि० तो काटना थे ना, और चुप तो हमसे कहीं ना रहा जाय!

उन्होने हम से पुछा कि क्या हम 'बोम्बे'(मुम्बई) से हैं? किसी हीरो हीरोईन को जानते हैं क्या? अब क्या कहें उनसे?

फ़िर तो साहब वो शुरु हो गये. उनकी धरमपत्नी, जो कि 'शाहरुख खान' की बहुत बडी फ़ैन थी, के बारे में बताने लगे. बता क्या रहे थे शिकायत कर रहे थे कि आखिर उसकी फ़िल्म में ऎसा होता क्या है? जो उसकी पत्नी फ़िल्म देखकर रो देती है? ये तो खैर मुझे भी नहीं पता. मैने पुछा भईये क्या हिन्दी समझते हो? जवाब आया, नही पर फ़िल्मों में 'चायनिज सबटाईटल' आते हैं. भई वाह!

उसने तो विनोद खन्ना, ह्रिषीकपूर, ऎश्वर्या राय, हेमामालिनी, धर्मेंद्र न जाने किस किस के नाम ले डाले. बोलने लगा कि ये लोग तो यहाँ आते रहते हैं और वो सबको जानता है. लो कल्लो बात, हम भारत में रहकर, कभी पास से देख ना पाये, और ये...!

चलो, बातें बहुत हुई, अब रास्ते पर थोडा ध्यान दिया जाय. 'गड्डी जांदीए छलांदा मारदी...' ऎसा तो कुछ ना हुआ. क्योंकि सिंगापुर में गड्डी छलांदा मारदी नईं जांदी, स्मूदली जांदीए. सडकें बहुत अच्छी होती हैं ना. जूउउम-वर्रूर्रूर्रूम करती हुई चमकती दमकती गाडियाँ भागी चली जा रही थी, मगर अपनी अपनी लेन में. ये नहीं कि जहाँ सिंग समाये चल दो. हाँ बीच बीच में इक्क दुक्का दोपहिया वाहन जरुर कुलांचे मार रहे थे. एसा लग रहा था कि ऊँट के उपर लोग बैठे हैं. अब यार है तो छोटे छोटे कद के लोग और बाईक्स चलाएंगे बड्डी बड्डी तो ऎसा ही लगेगा ना? ऊँची ऊँची इमारतें, बडे बडे फ़्लायओवर, किनारों पर तरतीब से लगे हुए पेड, साफ़ सुथरी सडकें, और जगह जगह आगे के ट्राफ़िक की सुचना देते हुए विद्युतपटल. ह्म्म्म! सही है!

हाँ, पुरे रास्ते भर हम सडक पर कुछ 'मिस' करते रहे. अरे अपने आर०टी०ओ० को. नहीं समझे? अरे यार, एक भी गाय, भैंस, बकरी, कुत्ता कुछ ना दिखा. और तो और एक भी ठोला (अपना टिरेफ़िक ट्राफ़िक पुलिसिया) तक ना दिखा.

खैर, थोडी देर में हमारी कैब एक इमारत के प्रांगण में खडी थी. हमारा सामान उतारा जा चुका था, और एक प्रिंटेड रसीद हमारे हाथ में थी. याने की 'बारगेनिंग' का कौनो चांस नहीं. हमने सोचा हमारा इन्दौर या बंगलौर होता तो पहले तो हील हुज्जत करनी पडती, भाडे की मगजमारी करते, दस बातें सुनता और सुनाता, और ज्यादा भाडा मांगता. यहाँ से लाया, वहाँ से लाया, वापस खाली जाऊँगा, सामान का एक्स्ट्रा - एट्सेक्ट्रा एट्सेक्ट्रा! पर यहाँ तो कोई रोल ही नही. भाडा बना $१९.५०. हमने $२० दिये, उसने भी चुपचाप ५० सेंट्स वापस कर दिये. हिसाब तो हिसाब है. चलो भई, अंतत: पहुँच ही गये अपने मुक्काम. 'कमाल' भाई को शुक्रिया कहा और चल पडे लिफ़्ट की तरफ़.

अरे! अब क्या है?

अभी अभी तो गेस्ट हाउस में घुसे हैं. अब नहाना धोना किया वो भी बताएं क्या?
हाँ, अब अगर कमेंट उमेंट मारना है तो लिखिये, और बाद में तशरीफ़ लाईयेगा.
हमें बहुत काम पडे हैं अभी.

फ़िर मिलते हैं, सिंगापुर की और खबरों के साथ.

जै राम जी की.

Friday, March 17, 2006

चल्ली चल्ली रे पतंग चल्ली चल्ली रे...

(पिछला अंक)

तो जी अपना बोझा ढोते हुये बढ चले अपने उडनखटोले की तरफ़, मन में यह सोचते हुये कि "यार सिंगापुर वाले तो अधिकतर चायनिज टाईप के होते हैं, और चायनिज तो नाटे नाटे होते हैं, तो "लाजिक" कहता है कि अपने को छोटी छोटी एयरहोस्टेस दिखेंगी". तो मन में ये रुप लिये हुये हम दरवज्जे तक पहुँचे. पहुँचे तो पहुँचे, और वहीं के वहीं ठिठक गये. बाप रे! ये तो पुरी -"ऊँचे लोग ऊँची पसन्द" है!! हम तो पहले ही से कमर झुका के चल रहे थे कि कहीं गलती से उसे देखना 'मिस' ना कर दें. अब ये जलवे देखे तो कमर भी सीधी करनी पडी और गरदन भी. हमने सोचा हो सकता है कि किसी स्टूल पर खडी हो, पर नहीं. और फ़िर इत्ती गोरी, जैसे कि फ़ेयर एण्ड लवली की पुरी की पुरी ट्युब खतम कर के आई हो. और फ़िर सोचा...नहीं नहीं और ज्यादा सोचने का टाईम नहीं मिला, आखिर पीछे वाले लोगों को भी चांस चाहिये था ना?... अरे, हवाईजहाज में एन्ट्री का. जाने क्या क्या सोचते हो यार आप लोग!

तो भाई लोगों ने धकियाया और हम सीधे अन्दर! बाप रे! इत्ता बडा हवाई जहाज! अरे अपने लोकल तो छोटे छोटे होते हैं, कहीं से भी चढो, चार कदम में पुरा जहाज नाप लो, यहाँ तो पुरी १०० मीटर की पैदल चाल चलनी पडी अपनी सीट तक पहँचते पहँचते, और तो और, पीछे बहुत सारा हवाई जहाज तो बचा ही था. बीच बीच में 'हाय', 'हेल्लो', 'गुडईवनिंग सर' के मीठे बाण झेलते हुये फ़ायनली अपनी सीट तक पहुँचे. अपनी किस्मत पर पुरा यकीं था कि जब अपने ही यहाँ किसी टेम्पो, मिनी बस, बस, ट्रेन वगैरह में किसी "राही हो खुबसुरत" टाईप का सान्निध्य नही मिलता तो ये हवाई जहाज कौन सा सुरखाब के पर लगा के आया है. सो, सारे 'उन' तरह के 'सहयात्रियों' को एक एक कर पीछे छोडते हुये जब हम अपनी सीट पर पहुँचे तो एक महाशय को ही हमारी बगल वाली सीट पर पाया. यह तो अच्छा हुआ था कि हमने खिडकी वाली सीट चाही थी और वो ही हमें मिली थी, वरना ४:३० घंटे सोने के अलावा और क्या करते. अपना बोझा उपर सामान के कप्पे में जैसे तैसे धंसा कर हम भी अपनी सीट पर धंस गये.

बैठते ही अपना बचपना जाग उठा. ये क्या है? वो क्या है? इसमें क्या रखा है? उसमे क्या रखा है? सीट कैसे स्ट्रेट करें? फ़िर से सीटींग वाली पोजिशन में कैसे लायें? खाने की ट्रे कैसे खोलें? कैसे बन्द करें? अपनी सीट से कौन कौन दिख रहा है? कौन नहीं दिख रहा? जो नही दिख रहा उसे कौन से एंगल से देंखे? जिनको बाहर ताडा था वो लोग कहाँ है? एयरहोस्टेस कौन सा बटन दबाने से आयेगी? बाहर कौन कौन से हवाई जहाज दिख रहे हैं? वगैरह वगैरह..!हर हवाई जहाज अलग होता है यार!

अरे, ये क्या दिख रहा है? अपने सामने? हर सीट पर टी०वी० फ़िट है? वाह! पर ये बन्द क्यों है? अपने पडोसी को देखा तो वो भी लगे पडे थे टी०वी० चालु करने के पीछे. तभी कुछ हलचल सी लगी, कुछ हिला डुला, ओह! ये तो अपना ही जहाज हिला था. तो साहब बढ चला अपना खटोला अपने रनवे की तरफ़. वो कैप्टन और वो एयरहोस्टेस कुछ बताने की कोशिश में लगे थे. अपनी सीट बेल्ट ऎसे बांधो, ये लाईफ़ जैकेट, वो आक्सीजन मास्क, ये करो वो करो, पर अपन तो बिन्दास, टी०वी० चालु करो अभियान में लगे पडे थे. अपने को तो सब पताईच्च था ना. कोई पहली बार थोडे ना बैठे थे.

आखिरकार, पता नही कैसे, अपने आप या हमारे कुछ क्रियाकलापों के कारण वो टी०वी० चालू हो ही गया. हमने चुपचाप से पडोस में देखा, वो साहब अपने कुर्सी के हथ्थे पर झुक के कुछ तो भी करने की कोशिश में लगे थे, हमने भी देखा - कि भाई देखें तो अपनी कुर्सी के हथ्थे में है क्या ऎसा? अरे वाह! तो यहाँ छिपा रखा है टी०वी० का रिमोट. अरे यार! पर वो तो फ़िट थ वहीं पर, और ऎसे झुक झुक के टी०वी० ओपरेट करेंगे तो कमर ही बोल जायगी. थोडा कामनसेंस का उपयोग किया और आईल्ला! वो रिमोट तो बाहर चला आया. अब हमने गर्व से अपने पडोसी को भी बताया कि मिंया ऎसे करो. वो भी खुश अपन भी.

तभी अनाउंसमेंट हुआ कि 'सावधान हम उडने वाले हैं', और अगले कुछ ही क्षणों में हम बंगलौर के आसमान में. एक तो रात का समां, और खिडकी की सीट, वाह साहब मजा आ गया. बंगलौर इससे पहले कभी इतना सुंदर नही दिखा. गाडियां, बिल्डिंग, पुल, रोड सब छोटे होते होते धीरे धीरे धूमिल हो गये. जाने क्यों एक कसक सी उठी, कि - आह! छुट चला अपना देश!

खैर, जब बाहर कुछ भी दिखना बंद हो गया तब हमने अन्दर के माहौल का जायजा लिया. लोगबाग वो गरम तौलियों में मुँह पोछ रहे थे, वो ज्युस वगैरह पी रहे थे, हमने भी वही कर लिया. तभी मन में विचार आया कि -मियां रात तो हो चुकी है, ये लोग खाने को कुछ देंगे कि नही? या बस ज्युस में ही टरका देंगे? अब तक तो भुख भी अपनी चरम पर पहुँच चुकी थी. रहा नही गया, बटन दबाया गया, एयरहोस्टेस को बुलाया गया, बडी शालीनता से पुछा गया कि ये ज्युस ब्युस से कुछ ना होने का, हमें तो भुख लगी है. तो उन्होने भी पुरी शालीनता से कह दिया कि ज्यादा मत कुलबुलाओ, अभी ला रहे हैं खाना. जब तक खाना आया, तब तक टी०वी० से मन बहलाया गया, सारे चैनल्स छान लिये गये, कन्फ़र्म कर लिया कि नही यार शायद हवाई जहाज में डिसेन्ट प्रोग्राम्स ही दिखाते होंगे. फ़िर खाना सुता, पहले तो कांटे छुरी से, फ़िर हाथों से, और फ़ायनली डायरेक्ट वो बाउल्स ही से. 'जुडवा' पिक्चर का गाना मन ही मन रिमिक्स किया - 'एक बार से मन नही भरता और दे मुझे दोबारा'- 'और' मांगा, तब कहीं जाके अपनी क्षुधा शांत हुई.

आह! खाने के बाद अब टी०वी०! पहले से छाने हुये चैनल्स फ़िर छाने. थोडी देर ये, थोडी देर वो करके पुरे चैनल्स देख मारे, आखिर पैसा तो वसुलना था ना. अब तो कुछ ना बचा करने का, ना बाहर कुछ दिखे, ना अंदर. जब तक खाना चल रहा था, तब तक, थोडी तो चहल पहल मची हुई थी अब तो नीरवता छा गई थी, सोचा चलो थोडी देर सो लिया जाय. बीते हुये दिन याद करते हुये, और आने वाले दिनों के बारे में सोचते हुए जाने कब आँख लगी पता ही नही चला.

अचानक कुछ हलचल महसुस की तो आँख खुल गई. घडी देखी तो पता चला करीब २ घंटे सो चुका था. बाहर झाँका तो कुछ उजाला सा दिखा. नीचे देखा तो एक शहर. एक नींद से जागता हुआ उनींदा सा शहर. अनाउंस हो रहा था कि करिब ३० मिनिट में जहाज सिंगापुर में उतरेगा. जितना हो सकता था, उतना बाहर का नजारा देखने की कोशिश में था. समुद्र तट, बंदरगाह, छोटे बडे पानी के जहाज, ऊँची ऊँची बिल्डिंग्स, फ़्लायाओवर्स, लंबी लंबी सडकें. सच, हवाई जहाज से नीचे का नजारा बहुत सुंदर दिख रहा था, काश, कैमेरा होता!

तो, तय समय पर हम सिंगापुर हवाई अड्डे पर उतर ही गये. इम्मीग्रेशन काउंटर के पहले देखा कि फ़ोकट के फ़ोन बुथ हैं, लोकल काल्स फ़्री. वाह! क्या बात है! सोचा कि पहले अपना सामान भेला(जमा) कर लिया जाय, इम्मीग्रेशन के लफ़डे से निकला जाय और फ़िर अपने संपर्क सुत्र को कॊल किया जाय. पर धत्तेरेकि! इम्मीग्रेशन पार करते ही फ़्री वाले फ़ोन बुथ दिखे ही ना. चलो जैसे तैसे करके एक जगह कुछ फ़ोन बुथ दिखे शायद कोईन बाक्स वाले. पर अपन तो अपन हैं, अपन पहुँचे एक टैक्सी के काउंटर पर, एक सुकन्या ने स्वागत किया, बोली, टैक्सी चाहिये? हम बोले चाहिये तो है, पर पहले एक फ़ोन करना था. उसने झट से अपने काउंटर से फ़ोन लगा दिया. हमारे संपर्कसुत्र ने बताया कि बन्धु सीधे बाहर निकल आओ और सिटी कैब पकड लो, सस्ते में आ जाओगे. वो बिचारी सुकन्या इन्तजार में थी कि हम उससे टैक्सी बुक करवायें, हम बेमुरव्वत जैसे, नकली मुस्कान मुँह पर चिपकाये 'थैक्यू' बोल के सीधे बाहर निकल लिये. पता नहीं चायनीज में क्या गाली दी होगी उसने.

एक सिक्युरिटी से पुछा, और आ गये वहाँ, जहाँ सिटी कैब आपका इन्तजार करती है. अपन बाहर आये, तो झट से एक टैक्सी आ गई अपने लिये, टैक्सी वाले 'भैय्या' उतरे, हमारा सामान डाला डिक्की में और पीछे का दरवाजा खोला, मगर हम तो झट से बैठ गए आगे वाली सीट पर. यार आगे से नजारा समझ मे आता है ना इसलिये. टैक्सी वाले 'भैय्या'को पता बताया, और लो चले हम अपनी कम्पनी के गेस्ट हाउस की तरफ़.

अब टैक्सी वाले 'भैय्या' का, उनसे हुई गुफ़्तगू का और सिंगापुर की सडकों का वर्णन अगली बार.

Sunday, March 12, 2006

यह काम नहीं आसां ३

पिछली बार तो हमने कह दिया कि - हम उड चले, मगर फ़िर सोचा कि उसके पहले हमने क्या क्या पापड बेले, अगर आपको वह सब ना बताया तो क्या मजा?

अब जरा पहले तो आप सारे "एक्टर्स" की "लोकेशन" समझ लीजिए। हम तो बैठे थे बंगलौर में। हमारे नियोक्ता (एम्पलायर यार!) थे सिंगापुर में, और उन्हीं की एक शाखा है पुना में। तो साहब ये तिकडी थी अपनी पिक्चर में।तो हमारा साक्षात्कार वगैरह तो जो है हुआ सिंगापुर से, मगर जब हमें सिंगापुर "एक्स्पोर्ट" करने की बारी आई तो सारी जवाबदारी डाल दी पुना वालों पर, और हम भी क्या कम थे, हम भी पुरे के पुरे ढुल गये उन (पुना वालों) पर।

वीजा वगैरह के लिये दुनिया भर के फ़ार्म्स भरे, तरह तरह के फ़ोटू खिंचवाए, दो-एक और फ़ार्म्स थे वो भी भरे। सारे कागजात -मय पासपोर्ट पूना भिजवाए गए। अंतत: वह काम हो ही गया जिसके लिए किसी को भी एक अदद पासपोर्ट की गरज होती है - अमां मियां - वीजा मिल गया यार!! सिंगापुर सरकार का ठप्पा लग गया हमारे "कोरे/क्वाँरे" से पासपोर्ट पर।पहली बार था तो दस बार देखा, इधर से देखा, उधर से देखा, सब तरफ़ से देखा कि देखें तो आखिर क्या आयतें लिखी होती हैं इस पर!

पहले तो ज्वाईनिंग डेट्स की प्राब्लम्स थी, वो ही तय नहीं हो पा रही थी। तो हमें टिकिट कब का देते वो भले लोग।खैर, जैसे तैसे ६ मार्च का ही टिकिट मिला, ये तो अच्छा हुआ कि रात की फ़्लाईट थी, क्योंकि ६ ता० को भी हमें हमारे आफ़िस जाना था।तो जी तय यह रहा कि ६ मार्च को अपने वर्तमान आफ़िस में दिन निकालेंगे, और रात को उडनखटोले में बैठ कर सिंगापुर और ७ मार्च को नए आफ़िस में धमाकेदार एन्ट्री। एक भी दिन की तनख्वाह क्यों छोडें भाई?

जैसा कि आपको पता ही होगा, हर कम्पनी में कई सारे महकमे होते हैं, जो अधिकतर तो तालमेल से काम करते हैं पर कभी कभी गडबड भी कर बैठते हैं।हुआ यह कि हम तो जाने कब से चिल्ला रहे थे कि हम बंगलौर ही से उडेंगे और हमें बंगलौर ही से टिकिट दिया जाय, और फ़िर हमें मिला भी एसा ही।
मगर जैसा कि होता है (बाहर जाने वालो को पता होगा), एक विभाग होता है अर्थकोष का। किसी बाहर जाने वाले बन्दे को उस देश की कुछ मुद्रा खर्चेपानी के लिये दी जाती है। तो, पहले यह बात हुई थी कि वो forex हमें बंगलौर हवाईअड्डे पर ही पहुँचा दी जायगी। हम भी इसी उम्मीद से बैठे थे।अब जाने वाले दिन (६ ता० को) पुना से फ़ोन आया और हमसे पुछा गया कि हम "मुंबई" हवाईअड्डे पर कब पहुचेंगे ताकि हमें हमारी अमानत दी जा सके। लो कल्लो बात। थोडा और वार्तालाप हुआ तो पता चला कि उस विभाग को खबर ही नहीं थी कि हम जा कहाँ से रहे हैं। वो यही समझे बैठे थे कि हम मुम्बई से ही उडेंगे।चलो, कोई बात नही, थोडी भागा दौडी के बाद हमने वह बंगलौर के ही उनके एजेंट से प्राप्त कर ली।

उफ़्फ़!! सारी कवायदें अपना रंग ला रही थी और हमारे जाने का समय करीब आता जा रहा था।

हमे अपने शहर इन्दौर जाने का तो मौका नही मिल पा रहा था, इसलिये हमारे माता-पिता ही बंगलौर चले आये- अरे हमें see-off करने भाई! आखिर बच्चा पहली बार देश के बाहर जा रहा है। हाँ, आने से पहले हम अपने भाई और अपनी "मैडम" से नहीं मिल पाये इसका जरुर थोडा दुख हुआ। अब मैडम कौन है ये ना पुछने लगिएगा अभी। वो बाद में।

खैर कुछ घंटे एअरपोर्ट पर बिताए, चेक-इन, इम्मीग्रेशन, फ़िर इन्तजार ११:१५ का। क्यों? अरे तभी हवाईजहाज में बैठने देते ना, कोई बारांबाकी की बस थोडे ना थी जो जब जी में आया बैठ गये।

अब एक और मजेदार बात हुई, या यूँ कहें कि गडबड हुई। हमारे पास एक तो था भारी सा हेण्ड्बैग, एक सुट्केस, और एक स्ट्राली (वो पहिये वाली सुट्केस टाईप की होती है ना? वो वाली)।अब पहली बार (देश से) बाहर जा रहे थे, थोडी धुकधुकी, थोडी घबराहट सी, इस चक्कर में, हमने हेण्ड्बैग और स्ट्राली दोनो ही लगेज में बुक कर दिये और (बाद में अपने आप को कोसते हुए) सुट्केस ढोते हुये फ़िरते रहे।बाकी लोगों के देख कर जलते रहे कि बाकी सब तो ठेल ठेल कर जा रहे थे, और एक हमीं थे जो ढो कर चल रहे थे। चलो कोई गल्ल नहीं! अपन तो ठोकर खाके ही ठाकुर बनते हैं यार!! और इसके अलावा कर भी क्या सकते थे?

एक वाकया और! देख कर अच्छा तो नहीं लगा फ़िर भी...!
जहाँ हम अपने उडनखटोले का इन्तजार कर रहे थे, वहाँ और भी काफ़ी लोग थे, देशी-विदेशी। अब एक विदेशी बन्दा अपना "गोदशीर्ष संगणक" (laptop computer) ले के कुछ काम कर रहा था। उनके पडोस में एक देशी सज्ज्न थे।थोडी देर बार वो सज्ज्न लगे उस विदेशी से बतियाने। बतियाना तो क्या था, वो विदेशी बन्दा जो कर रहा था उसके बारे में कुछ पुछ रहे थे। और जो पुछ रहे थे वो ऎसे पुछ रहे थे मानो कि सामने वाला कॊई तोप हो और कोई महान काम कर रहा हो। और खासकर यह तब और बुरा लगा जब कि वो खुद को किसी IT कम्पनी के मैनेजर जैसा कुछ बता रहे थे। छोड परे! हमें क्या!?
(वैसे हमने भी झांका था, powerpoint जैसे किसी software पर slides बना रहा था)

अंतत: उदघोषणा हुई और बाकियों के साथ हम भी बढ चले अपने सिंगापुर एअरलाईंस के उडनखटोले की तरफ़!

क्रमश:
(सिंगापुर एअरलाईंस की बालाओं के बारे में जानना हो तो इन्तजार कीजिए अगले अंक का)

Saturday, March 11, 2006

कभी जी भर पीने का ख्वाब लिये...

समीर जी का यह ब्लाग पढ कर बेसाख्ता दिल से ये आवाज निकल आई:


जाने अपने घर से कैसे निकलते हैं लोग,
हर कदम पर धोखा है, फ़िर भी चलते हैं
लोग,
जहाँ मरने में भी मजा नहीं, वहाँ जीते हैं लोग,
अपना भरा जाम छोड कर, किसी और की दी- जाने कैसे पीते हैं लोग,
अपनी
कीमत बढा कर, खुद की आबरू खोते हैं लोग,
अपनॊ को रातॊं में जगा कर, जाने कैसे
सोते हैं लोग,
घर के बाहर घर नहीं, फ़िर भी जाने को मचलते हैं लोग,
बाहर जा कर, वापस आने को तरसते हैं लोग,
जाने अपने घर से कैसे निकलते हैं लोग.



-विजय वडनेरे
सिंगापुर

यह काम नहीं आसां २

इससे पहले की दास्तां आप यहाँ पहले ही पढ चुके होंगे, नहीं पढी तो कोई बात नहीं, पहले उसे पढ लीजिए.

तो जी फ़िर हुआ यह कि धीरे धीरे अपनी अप्लिकेशन उसके अंतिम पडाव तक पहुँच ही गई, और सारे खाते बन्द होते होते हमारी कम्पनी में हमारा आखिरी दिन भी आ गया.

मगर एक बात बडी अजीब लगी. जब इतने सारे महकमों से हमारी अर्जी को गुजरना ही था, फ़िर भी हमारे आखिरी दिन तक हमारे कुछ कागजात हमें नही मिले.

पुछने पर पता पडा कि अभी १-२ हफ़्ते और लगेंगे. अरे भई ऎसा क्युं? इसका जवाब नही था किसी के भी पास. चलो जाने दो. कही ना कही तो समझौता करना ही पडता है.

खैर, ६ मार्च २००६, हमारा आखिरी दिन हमारी कम्पनी में, बंगलौर में, कर्नाटक में, यहाँ तक की भारत में भी.

काम बहुत से थे, पर राम-राम करते सब टाईम पर होते गये.

एक नया देश, नई जगह, नई कम्पनी, नये लोग, नया वातावरण हमारा इंतजार कर रहा था. दिल में कई सारी आशंकाएं थी, अपनों से दूर जाने का गम था, पर जैसा पहले भी कहा था- "जब ओखली में सर दिया तो मूसल से क्या डरना"

और अंततः हम उड ही चले.

सोये थे अपने भारत के आसमान में कहीं, और जब जागे तो सिंगापूर की धरती पर!!

(अगली कडी)

Wednesday, March 08, 2006

यह क्या बला है?

नून तेल लकडी !!

शाब्दिक अर्थों में समझें तो - नमक, तेल और लकडी। जिन्दगी गुजारने के अतिमहत्वपूर्ण साधन। जिनके बिना किसी का गुजारा नही चलता। जिसके लिये इंसान हर तरह के काम करता है, मेहनत करता है, अच्छे बुरे काम करता है, ताकि भूख मिट सके, ठौर ठिकाना हो सके।

यह "नून तेल लकडी" ही है, जो हर तरह के खेल खिलाती है, जगह जगह भटकाती है, नई नई दुनिया दिखाती है, नये लोगों से मिलवाती है, वहीं अपनों से बिछडवाती भी है। मगर कुछ पाने की ख्वाहिश ही सारे गमों को दरकिनार करते हुये आगे बढने की आग बरकरार रखते हुये चलते रहने का हौसला देती है।

जीवन यापन की जुगाड में लगे हुये भी हम उसमें कहीं ना कहीं, कुछ ना कुछ, किसी ना किसी तरह से मुस्कुराने के बहाने ढुंढ ही लेते हैं. नये लोगों से मुलाकात, उनके विचार, नई जगह पर झेली हुई परेशानी, और उस परेशानी से बाहर आने की कथा-व्यथा, याने कि एक नये ब्लाग की उत्पत्ति के लिये पर्याप्त "मटेरीयल"!!

वही "मटेरीयल" (या संस्मरण) आप सबके साथ बाँटना चाहता हूँ। हो सकता है कि इसमें आपको अपनी खुद की ही कहानी मिले। नये पात्रों के साथ, नये "सेट्स" पर!! मगर कहानी वही, आपकी अपनी- नून तेल लकडी की.