Thursday, November 22, 2007

वो २१५ किलोमीटर

उसने गाड़ी में सामान रखने के बाद पुछा "कहाँ बैठना पसंद करेंगे?" जाहिर है हमारा जवाब "आगे" ही रहा होगा. बस चलता तो हम तो ड्राईविंग सीट ही कह देते. तो हम धँस लिये आगे की सीट पर. गाड़ी "ऑपेल" की कोई मॉडल थी. खासी बड़ी सी कार थी. मेरा बड़ा वाला बैग (३२ इंच वाला) पीछे की डिक्की में आराम से पसर के लेट चुका था. और हम अपनी सीट पर हाथ पाँव फ़ैला के देख चुके थे. बैठते ही आदत के मुताबिक पहला काम सीट बेल्ट लगाना था – वो किया.

 

गाड़ी में बैठे तो जान में जान आई. और फ़िर गाड़ी निकल पड़ी हीथ्रो से. जी हाँ, मैं पहुँचा था लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर.   मेरी हवाई यात्रा शुरु हुई थी मुम्बई के छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से, जहाँ का तापमान खासा ३० डिग्री था. पुरे १० घंटे की थका देने वाली बोर सी हवाई यात्रा कर के मैं हीथ्रो पहुँचा था, जहाँ का तापमान था ३ डिग्री. कुछ ही घंटों में तीस से तीन तक का सफ़र; बोर इसलिये क्योंकि अकेले यात्रा करना अधिकतर मामलों में बोर ही लगता है. और खासतौर पर जब आपको एक ही सीट पर बैठे रहना पड़ता है. इस हवाई यात्रा की बातें बताउँगा अगली बार कभी.

 

खैर हम चल पड़े कार्डिफ़ की तरफ़, जो कि युनाईटेड किंग्डम के वेल्स प्रांत की राजधानी है. मैने जेम्स (हाँ यही उसका नाम था, वैसे मैने काफ़ी बाद रास्ते में पुछा था उससे) से पुछा भई कितनी दूर जाना है जो हमें दो ढाई घन्टे लगेंगे? उसने कहा "२१५ किलोमीटर".

 

२१५ किलोमीटर?? क्या उसने यही कहा था?? और समय सिर्फ़ दो ढाई घन्टे?? कहीं वह मज़ाक तो नहीं कर रहा था?? या मेरे कान तो नहीं बजे थे ना??

 

नहीं नहीं. २१५ किमी ही था. लंदन में जैसे ही हम लोगों की गाड़ी "मोटरवे" पर पहुँची मुझे एक बोर्ड दिख गया था "कार्डिफ़ २१५ कि.मी./१३२ मील". फ़िर तो यकीन ना करने का कोई कारण ही नहीं था. मगर दो ढाई घंटे?

 

मुझे पता है इन्दौर से भोपाल की दूरी करीब १९० किमी है. और सड़क से समय लगता है कम से कम चार घंटे. खैर तुलना तो नहीं करना चाहिये, वो तो अपना है – अपना मध्यप्रदेश.

 

तो हमारी गाड़ी बाकी और गाड़ियों के साथ मोटरवे पर रफ़्तार से बढी जा रही थी (जिन्हें नहीं पता कि मोटरवे क्या है, उनके लिये – हाईअवे या एक्सप्रेस हाईवे का ही दूसरा नाम है). मैने चुपचाप से स्पीडोमीटर में झाँका तो मुझे सुई ७० – ८० के बीच डोलती नजर आई. मैने सोचा इतनी गति से तो पहुँच गये अपन.

 

अचानक आगे गाडियों की लम्बी कतार रुकती हुई सी दिखी. जेम्स ने भी ब्रेक्स लगाये. गाड़ी के रुकते रुकते जो बल मैने महसूस किया तो समझ में आया कि गाड़ी तो काफ़ी रफ़्तार से चल रही थी. वैसे अगर चलती कार के सारे शीशे चढे हुये हों तो रफ़्तार समझ नहीं आती. मेरे साथ भी वही हुआ. मगर रफ़्तार तो सिर्फ़ ७० – ८० ही दिखी थी मुझे. मैने जेम्स से इस बारे में पुछा तो उसने समझाया – बबुआ – स्पीडोमीटर ध्यान से देखो. दो स्केल दिखेगी. पहली मील वाली है और अंदर वाली किलोमीटर की है. ओ हो! तो हम दरअसल मील वाली स्केल देख रहे थे और समझ रहे थे किमी वाली. तो खुलासा ये हुआ कि गड्डी चल रही थी करीब १२० – १३० किमी प्रतिघंटे की रफ़्तार से. उफ़्फ़ हम भी ना, गाड़ी को ख्वामख्वाह ही कोस रहे थे.

 

तो फ़िर बैठे बैठे क्या करें करना है कुछ काम की तर्ज पर हमने जेम्स से बातचीत का सिलसिला आगे बढाया.
 

हम: कितना पढे हो?

जेम्स: स्कूल किये हैं.

 

हम: टैक्सी कम्पनी में नौकरी करते हो?

जेम्स: नहीं. जब मर्जी होती है तब चलाते हैं. जितना चलाते हैं, उतना कमाते हैं.

 

हम: कार कम्पनी की है?

जेम्स: नहीं. हमार खुद की है. (हम थोडे से जल से गये थे ये सुन कर)

 

हम: कब से कमा रहे हो?

जेम्स: १६ साल की उम्र से.

 

हम: खाली समय में क्या करते हो?

जेम्स: फ़ुटबाल खेलते हैं. रग्बी खेलते हैं. किक बाक्सिंग में ब्लैक बैल्ट हैं. गोल्फ़ में भी हाथ आजमा चुके हैं. (हम मुँह बन्द करना भूल गये थे).

 

हम: भारतीय फ़िल्में देखी है कभी?

जेम्स: ह्म्म..एक दो देखी हैं. पर मेरी गर्लफ़्रेण्ड को ज्यादा पसंद है भारतीय फ़िल्में.

 

हम: अच्छा गर्लफ़्रेण्ड भी है?

जेम्स: ह्म्म…अभी कुछ साल भर से ज्यादा हुआ से साथ रहते. इसके पहले एक शादी किये थे. २ बच्चे भी हैं. हमारा कुछ जमा नहीं सो तलाक ले लिये रहे हैं. हाँ बच्चों से करीब रोजाना मिलते हैं. अभी फ़िलहाल गर्लफ़्रेण्ड के साथ शेयर करके रहते हैं.

 

इनके अलावा और भी कई बातें हुईं. एक संयोग देखिये. जब मैं सिंगापुर गया था, वहाँ हवाईअड्डे से कम्पनी के गेस्ट हाउस तक जिस टैक्सी में आया था. उस ड्राईवर की बीबी भी भारतीय फ़िल्मों की शौकिन थी. और यहाँ भी. याने घर घर की वही कहानी??

 

करीब देढ धंटा हम इसी तरह चलते रहे. मैने कुछ खाया नहीं था सो भूख लगने लगी थी. जेम्स ने मुझे कहा कि अगर फ़्रेश-फ़्रुश होना हो तो बता देना आगे आने वाले जॉईण्ट पर रोक दुंगा. मैने कहा नहीं यार चलते चलो. थोड़ा और खींच लो फ़िर होटल पहुँच कर ही देखा जायेगा. मगर फ़िर थोडी देर में भूख सहन नहीं हुई और जेम्स को रुकने को कहा. उसने अगले पेट्रोल पंप पर गाड़ी रोकी और बताया कि वहाँ से मैं कुछ सैण्डविच वगैरह ले पाउंगा. गाड़ी रुकी और मैं बाहर आया. कमर सीधी की.

 

अ अ अ अ अ अ अ कट कट कट कट …

 

ये मेरे दाँत और बदन की हड्डियाँ बोल रहीं थीं. जैसे तैसे कर के मैं काउंटर तक गया. वो बन्दा सब दरवाजे वगैरह बन्द कर के एक खिड़की के पीछे बैठा था. उसे मैने कुछ कहा उसने मुझे कुछ कहा जो मुझे बिल्कुल भी समझ नहीं आया. थोड़ी देर हम एक दूसरे को समझने का प्रयास करते रहे फ़िर हार कर मैं वापस गाड़ी में आ गय और जेम्स को बोला कि चलो यार, अब जो भी करना है होटल पहुँच कर ही करेंगे. हम फ़िर चल पड़े.

 

रास्ते में उसने बताया कि रात ज्यादा होने से सुरक्षा की दृष्टि से वे लोग ऐसा करते हैं कि दुकान में किसी को आने नहीं देते. मगर दिन में अंदर जाके सामान देख कर तुम ले सकते हो. वरना रात में तो तुम्हें लगभग सारे पेट्रोल पंप पर ऐसा ही मिलेगा. सो यह सीख मिली कि जो चाहिये हो उसका नाम पता पहले से पता होना चाहिये ताकि काउंटर वाले इंसान को बता सकें और वो ला कर दे सके.

 

मगर पराये देश में पराये खाने के सामान का पहले दिन से ही कैसे पता चलेगा भाई….!!

 

खैर. आधा पौन घंटा और चल कर हम लोग अंतत: होटल पहुँच ही गये.

 

जेम्स ने सामान होटल काउंटर तक रखवाया फ़िर विदा ली. मैने उसका मोबाईल नंबर ले कर रख लिया ताकि कभी जरुरत पडे तो उसे बुला सकुँ. फ़िर होटल के मैनेजर ने स्वागत किया. उसको अपना नाम बताया. उसने रजिस्टर में देख कर सुनिश्चित किया कि हाँ भई मेरे नाम की बुकिंग हुई है और कमरा भी तैयार है.

 

ब्रायन (होटल मनिजर) ने सामान उठाया और ले चला कमरे की तरफ़. कार्पेट से ढँकी हुई लकड़ी की सँकरी सी सीढियाँ, खट खट आवाज करते हम अंतत: पहुँचे कमरे तक. छोटा सा साफ़ सुथरा, गरम कमरा. उसने कमरा, टीवी, अलमारी, बाथरुम वगैरह बताया. और कहा कि सुबह नाश्ते का समय ७ से ९ का रहता है. और यहाँ कोई वेटर/रुम सर्विस वगैरह नहीं है जो भी चाहिये हो नीचे काउंटर पर आना.

 

चलो भई "फ़ायनली" पहुँच ही गये. सही सलामत और "सिंगल पीस" में. सामान रखा और कमरे को ताला लगाया और सीधे पहुँचे नीचे, ब्रायन को पुछा "भई   कुछ खाने को कहाँ मिलेगा?" उसने बताया थोडी ही दूर पर एक पेट्रोल पंप है वहाँ से कुछ खाने को जरुर मिल जायेगा, वरना बाकि तो सब इस वक्त (तब तक रात के ११:३० हो चुके थे) तक बंद हो चुका होगा. अरे बाप रे! फ़िर पेट्रोल पंप.

 

खैर निकले रात को पैदल पैदल, करीब १०० मी. पर ही थी वो जगह. अनजानी जगह, अनजाने लोग, जाने कैसे कैसे ख्याल आ रहे थे, मगर पापी पेट के लिये चला जा रहा था. काउंटर पर पहुँचा. ये साहब भी खिड़की के पीछे बैठे हुये थे. उसको कहा भाई भूखे के लिये कुछ सैण्डविच वगैरह हो तो दे दो. वो नामुराद पुछता है कौन सी. अब उसे कौन बताये और कैसे बताए कौन सी. मैने कहा – भई भूख लगने पर जो तू खाता हो वो ही दे दे. और फ़्लेवर्ड दुध हो तो वो भी दे दे. तो उसने एक सैण्डविच का पैक और एक चाकलेट मिल्क शेक ला कर दे दिया.

 

ये सामान ले कर होटल के कमरे में पहुँचा – बड़ी उम्मीद से पैक खोला, पहला कौर उत्सुकता से खाया. फ़िर बाकि का खत्म करने के लिये खाया क्योंकि भूख बड़ी लग रही थी.

रिपीट: बड़ी उम्मीद से दुध की बाटल खोली, बड़ी आशा के साथ पहला घुँट भरा, फ़िर बाकि का खत्म करने के लिये पीया क्योंकि भूख बड़ी लग रही थी.

 

(ये लोग ये क्या क्या खाते हैं यार….)
 

जैसे तैसे "खाना" खतम किया और कपड़े बदल कर जो बिस्तर पर कटे पेड़ की मानिंद टपके तो सीधे सुबह ही आँख खुली. (वो भी इसलिये कि नाश्ता मिलने का समय निकला जा रहा था).

 

किस्से को ब्रेक लगायेंगे और आगे की कथा आगे कहेंगे.

Monday, November 19, 2007

३० से ३

बाहर निकला तो भीड़ में मेरी आँखें कुछ ढुँढ रही थीं। जल्द ही मुझे वो दिख गया। मेरा नाम। हाँ वो मेरा ही नाम था। एक उँचे से गोरे से युवक के हाथ में था, एक कार्ड्बोर्ड पर बडे बडे अक्षरों में छपा हुआ था। जैसा मैने सोचा था, वो युवक वैसा तो नहीं था। ये तो बडे सलीके से कपडे पहना हुआ था। बाल अच्छे से जमे हुये थे। दिखने में भला सा पढा लिखा भी दिख रहा था। खैर मैं अपना सामान लिये हुये बढ चला उसकी तरफ़।

 

मैने उसके पास पहुँचते ही उसे हैलो कहा। उसने भी मुझे अपनी ओर आते हुये देख लिया था। उसने मेरा मुस्कुरा कर स्वागत किया। फ़िर उसने पुछा कि सारा सामान ले आये? कुछ बचा तो नहीं? चलें? मैने कहा – हाँ चल सकते हैं। वह एक तरफ़ चल पड़ा, मैं भी उसके पीछे पीछे बढ़ चला।

 

तभी मुझे कुछ याद आया। मैने उसे रुकने के लिये कहा। और आसपास नज़र दौड़ाई। एक कोने में फ़ोनबूथ भी दिख गया। थोड़ी बहुत चिल्लर तो मैने पहले ही इस काम के लिये करवा ली थी। सो एक फ़ोन लगाया और अपने पहुँचने की सूचना दी और कहा कि बस यहाँ से निकल ही रहे हैं।

 

तब तक उसने लिफ़्ट रोक दी थी। अपने सामान के साथ मैं भी लिफ़्ट में दाखिल हो गया। मैने उससे पुछा कितना समय लगेगा हमें पहुँचने में? उसने जवाब दिया ट्राफ़िक पर अवलम्बित है। कम हुआ तो दो से ढाई घंटे में पहुँच जायेंगे, वरना तीन से साढे तीन घंटे भी लग सकते हैं।

 

लिफ़्ट रुकी, बाहर आये, वह एक बड़ी सी मशीन के आगे रुका, और पार्किंग का पैसा भरा। जहाँ हम रुके थे, वहाँ से बाहर गाडियाँ पार्क की हुई दिख रही थी। शायद हम पार्किंग पर ही थे. एक दरवाज़ा था, वह आगे आगे चला, मैं सामान के साथ उसके पीछे पीछे दरवाज़े से बाहर निकला। बाहर निकलते ही अचानक ठीठक गया। वापस दरवाज़े से अन्दर जाने का मन हो गया। दरवाज़े के अन्दर तो मैं बड़ा सहज़ महसूस कर रहा था, ये अचानक क्या हुआ? कुछ   तो था, तो अचानक मेरे अन्दर तक चला गया, और मुझे रुकने पर मजबूर कर दिया। बाहर हवा जरूर चल रही थी। पर इतनी तो तेज़ नहीं थी। तभी वो वापस आया और सामान उठाने में मेरी मदद करने लगा। सामान ले कर वो आगे आगे चला और मैं उसके पीछे पीछे उसकी कार की तरफ़ बढा। दरवाजे़ से कार तक की दूरी ५० मीटर से ज्यादा नहीं होगी, पर तब तक ही समझ में आ गया की ये तो बहुत ज्यादा है – या यूँ कहना ज्यादा ठीक रहेगा कि ये तो बहुत "कम" है। कार के अन्दर जाते ही जान में जान आई,   और कुछ कुछ सामान्य सा लगने लगा।  खैर, तो बढ चले हम अपनी मंजिल की ओर.

 

अब इसके पहले और बाद में क्या क्या हुआ वो भी बताउँगा और जरुर बताउँगा, फ़िलहाल अभी तक जो भी पढा उसके बारे में आपके क्या ख्याल बने आप जरुर बताईयेगा। देखें तो सही कि हमारी बात आप तक पहुँची भी कि नहीं.